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✍️ शब्दकार ©
🪦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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दाँत पड़ौसी मीत हैं, रसना के बत्तीस।
नित करते सहयोग वे,रक्षा में इक्कीस।।
कूट - पीस कर खाद्य को,सदा सौंपते दाँत।
रसना रस लेती रहे, नहीं रदन की पाँत।।
दो जबड़े दो गाल भी,रसना के आवास।
दो अधरों का द्वार ये,रसिका को है रास।।
है अभेद्य मुख की गुहा,अरुन्धती का मंच।
नित स्वतंत्र बड़भागिनी, वक्ता वाचा पंच।।
स्वर्ग नरक की दायिनी,वाचा पढ़ती मंत्र।
भीतर से हर कर्म का, चला रही निज तंत्र।।
कोकिल -सी रस घोलती, कभी टिट्टिभी एक
वीणा बन झंकारती,रसना साध विवेक।।
किसी-किसी की मुखगुहा,में दो का सुखवास
दिखती है बस एक ही,करे जीभ उपहास।।
लाल गाल पिचकें भले, रहती सदा जवान।
रदन विदा भी हो चले,यौवन मत्त ज़बान।।
हर पल रस में लीन है,संज्ञा रसा सुनाम।
वाणी भाषा स्वाद में,निपुण करे बहु काम।।
कुलटा नेता की गिरा, गिरती आठों याम।
कुलटा कुल की बोरनी,नेता निपट निकाम।।
सत्कवि वाचा मोहिनी,विकट विमल सत मंत्र
'शुभम्' सुहृद रस जानते, सुधरे विकृत तंत्र।।
🪴 शुभमस्तु !
०४.०७.२०२२◆१२.३०
पतनम मार्तण्डस्य।
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