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✍️ शब्दकार ©
🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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विदा होता है अब आषाढ़,
नहीं बरसे बादल दो बूँद।
प्यास से तड़पे धरा प्रगाढ़,
गगन में उड़ते घन दृग मूँद।।
बहाते सरिता में विष आप,
लगाते बादल पर आरोप।
झेलता है सागर संताप,
उसे भी मानव के प्रति कोप।।
शत्रु मानव , मानव का आज,
कनक ने उसे बनाया अंध।
चाहता है सोने का ताज,
लगा है नर की धी पर बंध।।
दूध फल नहीं एक भी शुद्ध,
शाक सब्जी में विष ही सार।
बताता निज को बड़ा प्रबुद्घ,
रहा है स्वयं मनुज को मार।।
घेरते हैं बीमारी काल,
मची है त्राहि - त्राहि नर बीच।
'शुभम्' फैला है भीषण जाल,
बनी है चाहत उसकी कीच।।
🪴 शुभमस्तु !
०७.०७.२०२२◆ ७.००आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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