शनिवार, 16 जुलाई 2022

लेखनी क्यों नहीं लिखती?✍️ [लेख ]

 

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✍️ लेखक ©

🖋️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम् '

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 किसी कवि या लेखक के लिए कोई कविता,लेख,व्यंग्य आदि लिखना कोई एकदम इतना सहज नहीं समझ ले। कुछ व्यक्ति समझ सकते हैं। समझते भी होंगे ;कम से कम वे व्यक्ति जो माँ सरस्वती की इस अहैतुकी कृपा से वंचित हैं।ये अहैतुकी कृपा कोई बेतुकी कृपा न समझ ले।क्योंकि इस कृपा की भी कोई न कोई तुक तो होगी ही।

 वैसे हर आम और खास व्यक्ति की यह प्रकृति होती है कि वह मात्र अपने काम काज को ही सबसे अहं समझता है।इसी अहम की बू अथवा खुशबू कह लीजिए ;से वह निरन्तर भन्नाया- झन्नाया हुआ रहता है। जैसे एक वकील समझता है कि वकालत बच्चों का खेल नहीं है। नेता समझता है नेतागीरी भले आदमी का काम नहीं है। डॉक्टर मानता है कि इसे कोई और नहीं कर सकता ,जबकि इस देश में अनेक कंपाउंडर साहब डॉक्टरों को पीछे छोड़ते हुए महा डॉक्टर बने बैठे हैं और भगवान बने हुए अपने ही ठिकाने पर पुज भी रहे हैं और तथाकथित डिग्रीधारी मक्खियाँ मार रहे हैं।दलालों के भाव आसमान छू रहे हैं,उनके बिना सरकारी या निजी कोई काम नहीं होता।ये सभी कार्य हैतुकी हैं। इनसे पैसा बरसता है। भला ऐसा भी कोई होगा जो बिना आर्थिक उद्देश्य के एक फली के भी दो टुकड़े करेगा?सबको कुछ चाहिए। खासकर पैसा ही भगवान है जहाँ, तो वहाँ चाहिए भी वही।इसी हैतुकी क्रम में यह भी कह सकते हैं कि एक गृहिणी समझती है कि उससे बड़ा काम किसी का नहीं है। वह जो करती है ,एक स्त्री तो कर सकती है ;पुरुष नहीं कर सकता। गृहिणी की यह मान्यता सही भी है।पुरुष न बच्चे को जन्म दे सकता है,और नहीं पालन पोषण कर सकता है।कुछ अपवादों को तो सब जगह ही छोड़ना पड़ता है ,यहाँ भी छोड़ दीजिए।अर्थात पुरुष बच्चे पाल पोष तो सकते हैं,परंतु जन्म ......? जी नहीं ,ये काम उनके वश का कदापि नहीं है। क्योंकि प्रकृति ने उन्हें वे साधन सुविधाएँ देने से मना कर दिया कि नहीं ;ये काम तुम्हारा नहीं,तुम 'परुष 'हो। इसलिए तुम अपने काम से काम रखो, बस। तुम्हें करने के लिए बहुत कुछ शेष है।

 बात लिखने की हुई थी।स्त्री तक पहुँच गए। स्त्री तक तो हर कवि ,लेखक भी तुरंत पहुँच जाता है। क्योंकि वहाँ रसराज बरसता है। शृंगार की वर्षा जो होती है।इसलिए वह सामान्य जीवन में ही नहीं ,कवि जीवन में भी संयोग, वियोग, स्पर्श, चुम्बन, आलिंगन की वीथियों में एक रसलोभी भ्रमर की तरह मँडराता रहता है। नारी का नाम आया नहीं कि वह पानी- पानी हो जाता है। यदि वास्तव में वह प्रत्यक्ष हो गई तो फिर नियन्त्रण से बाहर। अच्छे -अच्छे धुरंधर कवियों को पगहा - तोड़ कविता कहते देखा है। बस इतना ध्यान रखा जाता है कि शालीनता का मखमली आवरण आच्छादित करके उसे चमका दमका दिया जाता है। उसे कोई अश्लील न कह दे। भले ही वह उसकी सीमाओं की जंजीर को भी तोड़ डाले! शेष नौ रसों को तो भूल ही जाता है। 'माया' का दूसरा नाम शृंगार है,नारी है। ये कम्बल नहीं ,जो उसे बाँधता हो। वही उसे कसकर पकड़ता है।इसीलिए क्या कवि सम्मेलन, क्या साहित्यिक मंच ,क्या ग्रंथ : सबमें ही फूल और भ्रमर का संबंध दृष्टिगोचर होता है। 

   वास्तविक उद्देश्य की बात तक आते - आते इधर उधर की पगडंडियों में बहक जाना पड़ता है।मैं अपनी लेखनी के मौन की बात कर रहा था कि क्यों वह अनायास मौन हो जाती है।कई- कई घण्टे ,दिन ऐसे ही निकल जाते हैं कि माँ निर्देश ही नहीं देतीं कि पृष्ठ काले कर ले।कुछ कह ले। मन के भावों को साकार कर ले।नीरस हृदयों में रस की फुहार भर ले।पर क्या किया जाए, माँ की इच्छा पर अपना क्या वश है? इसलिए मैं मानता हूँ कि यह स्ववश नहीं ; माँ के वश का रस है। जब वह चाहती हैं ,तब पावस है ,कभी मधुमास। और कभी निरे पतझड़ की लंबी श्वास।ये कवि और लेखक तो हरे बाँस की बाँसुरी है।इसमें माँ जितनी फूँक मारने का निर्देश देंगीं ,उससे अधिक का किसी का वश नहीं है। 

  सोचता हूँ कि ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है कि मैं अपने को कर्ता न मान बैठूँ! अपने कृतित्व की धुन में नहीं ऐंठूँ, बस जितना माँ कहें उतना ही पेठूँ।शिक्षण -प्रशिक्षण के बाद मानव डॉक्टर, वकील,इंजीनियर,शिक्षक, लिपिक, अधिकारी,कुछ भी बन सकता है ;किंतु कवि माँ सरस्वती ही बनाती हैं। इसके लिए कहीं कोई स्कूल कॉलेज नहीं है। मदरसा नहीं है।विश्वविद्यालय भी नहीं है।सब कुछ प्राकृतिक है । वही माता सरस्वती ही किसी को वाल्मीकि, कालिदास, कबीर ,सूर, तुलसी ,निराला बनाती हैं।स्वेच्छा से कोई कुछ नहीं बन सका। जो ये दंभ पाले हुए हो ,वह झूठ बोलता है। माँ की अहैतुकी कृपा के प्रति कृतघ्न है।बरसती है सभी पर माँ की कृपा इसीलिए तो वह वाणी धारण करता है। माँ का ही है यह विशेष वरद हस्त कि वह कुछ लिख पाने ,संगीत ,वादन आदि का ज्ञान प्राप्त कर पाता है।उसके प्रति मानव मात्र को माँ का कृतज्ञ होना ही चाहिए। 

 🪴 शुभमस्तु ! 

 १६.०७.२०२२◆६.४५ पतनम मार्तण्डस्य।

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