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✍️ शब्दकार ©
🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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-1-
बादर घूमि रहे नभ में,
बद राह गही करि झूठ बहानों।
खेतनु में न गिरी जल की,
इक बूँद गयौ मनुआ तरसानों।।
देखत - देखत आँखि थकीं,
सब सूखि रहे मथुरा बरसानों।।
बीजु न एक बयौ धरती,
उपजै नहिं खेतनु एकहु दानों।।
-2-
बीति गयौ पिय मास अषाढ़,
न भीजि सकी मम चूनर सूखी।
बूँद न शेष रहौ घृत नेंक,
न खावत बालक रोटिहु रूखी।।
भैंस न ब्याइ सकी अजहूँ,
नहिं चावत ढोरहु घास पतूखी।
आवहु बेगि पिया घर में,
बिन तोहि भईं अँखियाँ मम दूखी।।
-3-
सावन दूरि नहीं सजनी,
धरती अजहूँ वन बागनु प्यासी।
आवन की कहि आत नहीं,
पिय अंग लगाय न जात उदासी।।
भीतर बाहर मोहि न चैन,
गई सिगरी मिटि बूधि विनासी।
तीरथ धाम पिया सखि री,
मथुरा हरिद्वार वही मम कासी।।
-4-
सागर - सागर घूमि थके घन,
बूँद न नीर मिलौ बदरा कूँ।
मानव डारि रहे विष ढेरनु,
खेतनु में बहतौ सरि ताकूँ।।
खाद रसायन खाइ मरै जनता
नित बोधि करों अब काकूँ।
चों चिचिआइ रहे सिगरे,
नहिं सावन लावत है बरखा कूँ।।
-5-
दूरहि दूर चलौ जल जात,
नहीं जलजात दिखें जल माँहीं।
आँखिनु में न समाय रहौ जल,
पादप माँगि रहे घन छाँहीं।।
रोगनु बाढ़नु डूबि रहे नर,
नारि न सोचि रहीं मुस्काहीं।
आजु मिले सुखु खूब घनौ,
कल भाड़ में जाइ भलें पछिताहीं।।
🪴 शुभमस्तु !
०६.०७.२०२२◆३.४५ पतनम मार्तण्डस्य।
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