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✍️ शब्दकार ©
🦢 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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आना और जाना,
इन दोनों के मध्य
पुराया एक ताना - बाना,
जैसे मकड़ी का
जाल बनाना,
लगता है मानव को
जीवन ये सुहाना।
जाले का निर्माण
साज - सज्जा,
अनेकविध लगाई ध्वजा,
पाता हुआ
सुख का मजा,
पता ही न चला
कितना दिया बिता,
उधर अनहद का
घंटा बजा,
सज गई चिता,
वह रहा बिना चिंता।
जाले के बीच
कभी इधर कभी उधर,
कभी ऊपर या नीचे,
कभी आगे
तो कभी गया पीछे,
बस उधेड़बुन में
कट गया जीवन,
शिशु से निरंतर
जरा तक बढ़ते हुए
डगमगाते कदम,
निकल गया दम,
करते हुए 'मैं' - 'मैं'
मेरा - मेरा,
औऱ फिर क्या
महाशून्य,
महाशून्य में विलीन ,
देह नहीं रही
आत्मा के अधीन,
धारण करने
तन नवीन।
आया था कभी,
चला जाना भी पड़ा,
अड़ता था जाले में,
कदापि नहीं अड़ा,
फूट गया घड़ा,
ऊपर से आया था
पुनः ऊपर ही चढ़ा,
अब नहीं करता
अपना जी कड़ा,
भूल गया रबड़ी
रसमलाई दही बड़ा।
सबकी एक ही गति,
परंतु न सुधरी मति,
रति ही रति,
पति को पत्नी
पत्नी को पति,
फिर क्या जब
चिड़ियाँ चुग गईं
पकी फसल के खेत,
हाथ में रह गई
सूखी रेत,
छूट गए सभी
सुख के हेत।
निकला बबूला,
ऊलना भूला,
टूट गया झूला,
फिर क्या
वही हुआ
जो होना था,
'शुभम्' जो आया था,
उसे तो जाना था,
रोता हुआ आया,
मौन धर हो गया विदा।
आदि से इति तक,
यही मकड़ जाल है,
मक्कड़ बनाना
आदमी का कमाल है,
कभी सुर लय है
कभी बिना ताल है,
कर्ता पात - पात है
मनुज डाल- डाल है।
🪴 शुभमस्तु !
१४.०७.२०२२◆५.३०
पतनम मार्तण्डस्य।
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