सोमवार, 18 जुलाई 2022

कबीर का मानवीय चिंतन 🪷 [ लेख ]


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 ✍️ लेखक © 

 🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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 भक्तिकालीन निर्गुण काव्य धारा के संत कवियों में कबीर का शीर्ष स्थान है।उनके विराट व्यक्तित्व में युग- पुरुष के दर्शन होते हैं।कबीर की काव्य - वाणी मानव, मानवता और मानव- समाज के कल्याण के लिए निर्भीकता की उद्गाता है। कबीर के काव्यमय संदेशों का मुख्य मंतव्य मानव कल्याण ही रहा है। भक्त कवियों ने ईश्वर के पश्चात गुरु को सम्मान प्रदान किया है।कबीर ने तो गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊपर प्रतिष्ठित किया है:

 'गुरु गोविंद दोऊ खड़े,काके लागूँ पाँय।

 बलिहारी गुरु आपने,गोविंद दियो बताय।।'

 भक्तिकाल में मुस्लिम शासकों ने अपने राज्य और मजहब का विस्तार करने के लिए हिंदू जनता पर अनेक अत्याचार किए।इसीलिए हिन्दू जन मानस की धार्मिक भावना का प्रवाह परमात्मा की भक्ति की ओर हो गया। कबीर ने जनता की आम बोलचाल की भाषा को अपनी अभिव्यक्ति का आधार बनाया ,ताकि उनके संदेश को ग्रहण करने में उसे कोई असुविधा न हो।यही कारण है कि कबीर की वाणी सहज रूप में जन -जन को प्रभावित करने वाली सिद्ध हुई।

 कबीर ने बिना अक्षर ज्ञान प्राप्त किए हुए ही साधु - संतों की संगति करके ज्ञान को अपने व्यापक रूप में प्राप्त किया। जिसके माध्यम से वह जनता तक अपनी सुधारात्मक बात पहुंचाने में सफल रहे।उनकी भाषा को इसीलिए सधुक्कड़ी या पंचमेल खिचड़ी कहा जाता है। कबीर का चिंतन सदैव मानव हितैषी रहा है।उनका सुधारात्मक प्रयास समाज में व्याप्त विविध विसंगतियों को मिटाने का ही रहा है।हिंदू मुसलमानों दोनों को उनके द्वारा डाँटा फटकारा गया है:--

 हिंदू अपनी करें बड़ाई गागर छुअन न देई। 

 वेश्या के पामन तर सोवें ये देखो हिंदुआई।। 

 मुसलमान के पीर औलिया मुर्गा मुर्गी खाई।

 एक अन्य स्थान पर उन्होंने मुसलमानों को उनकी जोर- जोर से अजान लगाने पर आपत्ति प्रकट करते हुए प्रताड़ित किया है :

 'कांकर पाथर जोरि के, मसजिद लई चुनाय। 

 ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय।।' 

 कबीर ने साकार ईश्वर की पूजा को महत्त्व नहीं दिया। वरन कण कण में रमे हुए परमात्मा के ध्यान को ही सच्ची आराधना स्वीकार किया है:---

 'पाथर पूजें हरि मिलें,तो मैं लूँ पूजि पहार।

 या ते तो चाकी भली, पिसा खाय संसार।।'

 संसार के प्रति मानवीय आसक्ति के विरोध में कबीर वाणी का उदघोष दृष्टव्य है: 

 'हाड़ जले ज्यूँ लाकड़ी, केस जले ज्यूँ घास। 

 सब तन जलता देख करि,भया कबीर उदास।।' 

 संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि कबीर अपने युग के सच्चे मानवीय चिंतक थे। उनका एक -एक शब्द मानव कल्याण के लिए समर्पित है। 

 🪴 शुभमस्तु !

 १८.०७.२०२२◆१०.०० आरोहणम् मार्तण्डस्य। 

 

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