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✍️ शब्दकार ©
🪦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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जो विधि को ही
नहीं मानता,
हर ओर अपनी ही
तानता,
जो गुड़ की चासनी में
गोबर को सानता,
क्या नहीं कहोगे
इसे उसकी अज्ञानता ?
अथवा कह दोगे विद्वत्ता!
भेजा था उसे
मानव बनाकर
एक ही द्वार से,
बाहर निकल कर
भर गया गर्म गुबार से,
भूल गया कर्ता अपना,
देखने लगा
सत्ता का सपना,
माला को जपना
पराया घर माल
सभी कुछ अपना!
अधिकांश करनी में विलोम
खान - पान
देहाचार में अनुलोम,
मुँह को छोड़
किसी और द्वार से
खाया नहीं,
न देखा कान से
न सुना ही आँख से,
साँस नहीं ली
निम्नांग से,
नहीं आई नाक काम
शुण्ड बनी हाथ ,
न पैर ने चलना छोड़ा,
औऱ न
हाथों ने काम से
पहुँचा मोड़ा,
जो करता रहा एक घोड़ा
उसी तरह नर ने भी
नारी से नाता जोड़ा।
पर क्या करें
विधाता अपना
विधान नहीं छोड़ेंगे,
देख कर करनी नर की
क्या वे उसकी मनमानी
की ओर मुख मोड़ेंगे ?
सोचना होगा ही
हे मानव! तुझे,
हर सीमा का
अतिक्रमण संघातक है,
तू जो कर रहा है
वह पातक है,
तेरा ही अपने हाथों,
हाथों से क्यों?
हाथों से हाथ का काम
तेरी तौहीन है,
तुझे किसी
औऱ ही अंग से
तेरे स्वभाव की
तरकीब नवीन है,
उसे चला लेना,
बचा सके तो
कुदरत के कहर से
खुद के अस्तित्व को
बचा लेना,
अपने चेहरे को
शुतुरमुर्ग बन
टाँगों में छिपा लेना !
🪴शुभमस्तु !
२७.०७.२०२२◆ ७.३० पतनम मार्तण्डस्य।
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