■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■
✍️लेखक ©
🔍 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■
प्रत्येक जीव अपने कर्म फल के अनुसार चौरासी लाख योनियों की यात्रा करता है। (भटकता नहीं है।) यह प्राचीन मान्यता जीव को सत्कर्म करने के लिए प्रेरित करती है।हम यह भी मानते हैं कि प्रत्येक जीव का पुनर्जन्म होता है। जब पुनर्जन्म होता है ,तो पूर्व जन्म भी अवश्य ही होता है।जिस प्रकार विभिन्न जंतुओं में जीव औऱ जीवन का अस्तित्व है , उसी प्रकार विभिन्न वनस्पतियों में भी जीव और जीवन का अस्तित्व है।
विचारणीय तथ्य यह है कि किसी जंतु में ;चाहे वह मानव ही क्यों न हो ; उसके जीवन के तीन प्रमुख चरण होते हैं।पहला चरण है ;उसका जन्म अर्थात संसार में आगमन।दूसरा है उसका जीवन जीना औऱ तीसरा है गमन अर्थात मरण हो जाना औऱ पुनः जीवन के नवीन चक्र का श्रीगणेश कर देना अर्थात जन्म की प्रक्रिया,गर्भाधान, विकास औऱ अवधि पूर्ण होने के बाद पुनः जन्म ले लेना।
जीव के जीवन के उक्त तीन चरणों पर जब गहनता से विचार करते हैं ,तो ज्ञात होता है कि जीव को अपने जीवन के पहले औऱ तीसरे चरण की प्रक्रिया और उसके सम्पन्न होने का कोई अनुभव नहीं होता।किस प्रकार एक नन्हीं देह में जीव का प्रवेश होता है, किस स्थान से होता है, जीव कैसा होता है ,(अर्थात वह स्वयं में कैसा है ,आकार, प्रकार ,रंग ,भार, ठंडा, गर्म, चिकना ,खुरदरा, गंधयुक्त या गंध रहित आदि आदि),देह में जीव का निवास किसी विशेष अंग में होता है अथवा पूरे शरीर में,सुख ,दुःख, गर्म ,शीत आदि की अनुभूति किसे होती है ,जीव को या देह को? आदि बहुत सी जिज्ञासाएं हैं ,जिनसे वह सर्वथा शून्य ही रहता है। इसी प्रकार जब जीव इस देह को छोड़कर बाहर जाता है ,तो उसके मार्ग,जाने की विधि,कहाँ जाता है ,कब तक कहाँ रहता है ,कहाँ - कहाँ जाता है,कहाँ विराम लेता है, कितनी अवधि बाहर रहने के बाद पुनः किसी देह को अपना निवास बनाता है ;ऐसे बहुत सारे अनुभवों से वह अनभिज्ञ ही रहता है। उसे कब जन्म लेना है ,कब मरना है ,कैसे मरना है , कहाँ मरना है :ये सभी अनुभव कोई जीव नहीं जानता।उसकी स्मृति रूपी चिप से विलीन हो जाता है। यह सब एक प्राकृतिक प्रक्रिया के अंर्तगत स्वतः ही होता है। कोई जानबूझकर अंजाम नहीं देता। इस प्रकार पहले और तीसरे चरण जीव के अनुभव से शून्य होते हैं।
जन्म और मृत्यु के दो महाशून्यों के बीच में जीवन का विराट रूप आकार ग्रहण करता है। जिसके विभिन्न खट्टे- मीठे अनुभवों का उसे भरपूर ज्ञान होता है।गर्भाधान के बाद किसी जीव का गर्भ काल कितना लम्बा है ,यह भी उसके अपने नियंत्रण से बाहर है।जन्म होने की प्रक्रिया बहुत लंबी भले न हो ,परंतु वह भी उसके अपने वश में नहीं है।इन सभी प्रकार के विविध अनुभव उसकी सीमा से इतर ही होते हैं। जन्म की तरह उसकी मृत्यु भी अल्पकालिक और बिना अनुभव दिए हुए ही हो जाती है।यहाँ तक कि अगली योनि में जाकर उसका पूर्व ज्ञान भी शून्य हो जाता है। सम्भवतः प्रकृति को ये सब अनुभव स्मरण रखना उसके लिए उचित नहीं समझा गया।इसलिए इस विषय में वह कोरी स्लेट ही बना रह गया। उस कोरी स्लेट पर जो कुछ भी लिखना है ,वह उसने अपने लिए ही सुरक्षित रखा है।पशु, पक्षियों, कीट पतंगों, जलचर , स्वेदज, अन्य थलचर ,अनेक नभचर की तरह ही मनुष्य भी चाहे कितना ही बुद्धिमान होने का दम्भ ढोता फिरे,;किन्तु इस मामले में वह किन्हीं कीड़े- मकोड़ों से भी अधिक नहीं है।
अन्य जीवों के तीनों चरण अनुभव शून्य हो सकते हैं, किंतु मानव के जीवन यापन का द्वितीय चरण ही अनुभवों का महाग्रंथ है। जिनमें कुछ अनुभवों को कम महत्वपूर्ण मानकर भुला देता है। जिन्हें विशेष महत्व प्रदान करता है; वे उसे याद रह जाते हैं। यही उसके द्वितीय चरण के महाग्रंथ हैं।अरबों खरबों वर्षों की मानव जीवन की यात्रा करने और मन तथा मष्तिष्क के चरम विकास के बावजूद अभी भी वही वैसा का वैसा ही है। जैसा एक वानर वैसा ही ये प्रबुद्ध नर।कहीं कोई अंतर नहीं।
जीव की जीवन यात्रा वस्तुतः अति विचित्र ही है।अतुलनीय है।यदि यथार्थ में देखा जाए तो मानव औऱ अन्य जंतुओं के जीवन क्रम में कोई अंतर नहीं है।उसने सभ्यता के कपड़े पहनकर अपने को उनसे अलग करने का असफल प्रयास किया अवश्य है ,किन्तु संदर्भित प्रसंग के अंतर्गत जन्म - मृत्यु के अनुभवों को वह व्यक्तिगत स्तर पर जानने में अभी भी शून्य ही है।सामूहिक शोधों,विज्ञान, अध्यात्म आदि का आश्रय लेकर बहुत कुछ जान लिया है ,फिर भी कहीं कोई संपूर्णता नहीं है।निजी स्तर पर कोई अपना अनुभव नहीं बता सकता। प्राचीन ग्रंथों का अनुशीलन या विश्लेषण उसे एक सामान्य ज्ञान मात्र दे सका है। यह निजी अनुभव नहीं है, यह मात्र संग्रहीत ज्ञान का प्रतिफल है।जिसके लिए वह नहीं कह सकता कि यही है।ऐसा ही है।इसके परे कुछ भी नहीं है।परानुभव औऱ स्वानुभव का यह बहुत बड़ा अंतर है।परानुभव को स्वानुभव नहीं कहा जा सकता।विचित्र है यह जीव की यात्रा औऱ प्रकृति का खेल।
🪴 शुभमस्तु !
०९.०७.२०२२◆४.४५ पतनम मार्तण्डस्य।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें