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✍️ शब्दकार ©
🚨 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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एक नहीं अड़तीस साथ हैं,
रक्षक सदा सबल मेरे।
कहते हैं सब कोमल रसना,
दसों दिशाओं से घेरे।।
हर रस को चखती रस लेती,
नहीं किसी से मैं डरती।
रुचिकर लगता यदि कलियों को,
अपनी तृप्ति पूर्ण करती।।
सीमित स्वाद यहीं तक सारा,
नहीं उदर में है तेरे।
एक नहीं अड़तीस साथ हैं,
रक्षक सदा सबल मेरे।।
दो कपोल दो जबड़े देखो,
दो दीवारें रद बत्तीस।
बाहर दो - दो अधर रसीले,
गिनती है पूरी अड़तीस।।
मुख मंडल के बीच छिपी हूँ,
उदर - अंग मेरे चेरे।
एक नहीं अड़तीस साथ हैं,
रक्षक सदा सबल मेरे।।
होती हूँ वाचाल कभी तो,
कुछ भी मैं कह जाती हूँ।
लगे किसी को बुरा - भला तो,
सहन नहीं कर पाती हूँ।
कैकेयी या द्रुपद - सुता हो,
सबने उलट दिए भेरे।
एक नहीं अड़तीस साथ हैं,
रक्षक सदा सबल मेरे।।
मैं ही गाती गीत रसीले,
मैं कलहा बन कर आती।
महाभारतों की रणचंडी,
रक्त चाटने छा जाती।।
मुझसे ही शुचि सुमन बरसते,
सुनते कान बिना हेरे।
एक नहीं अड़तीस साथ हैं,
रक्षक सदा सबल मेरे।।
मैं वाणी मैं रसा, रसज्ञा,
मैं ही रसिका , वाचा हूँ।
जिह्वा , गिरा कहो या रसना,
करती तिया न पाँचा हूँ।।
'शुभम्' रंग - रस देती इतने,
इक्षु - दंड के बिन पेरे।
एक नहीं अड़तीस साथ हैं,
रक्षक सदा सबल मेरे।।
🪴शुभमस्तु !
०३.०७.२०२२◆३.१५ पतनम मार्तण्डस्य।
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