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✍️ शब्दकार ©
🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'
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सब अपनी -अपनी ही कहते।
अपनी ही लहरों में बहते।।
नहीं चाहता सुनना कोई।
सबने अपनी सरसों बोई।।
सुर तालों में अपनी बहते।
सबअपनी-अपनी ही कहते।।
चाल सभी की बदल रही है।
जो कह दें बस वही सही है।।
मनमानी कर मंजिल लहते।
सब अपनी-अपनी ही कहते।
जितना स्वार्थ वहीं तकअपना
अपने सुख का देखें सपना।।
कष्ट नहीं अपने तन सहते।
सब अपनी-अपनी ही कहते।
धर्म पुण्य के खेल निराले।
राजनीति से खुलते ताले।।
तरह तरह के फूल महकते।
सब अपनी -अपनी ही कहते।
समता देख नहीं नर सकता।
छोट-बड़प्पन उसको फबता।
रोते निर्धन धनी चहकते।
सब अपनी -अपनी ही कहते।
🪴शुभमस्तु !
०८.०७.२०२२◆११.४५
आरोहणम् मार्तण्डस्य।
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