गुरुवार, 27 अक्तूबर 2022

जिंदादिल रहें सदा ! 🏊🏻‍♀️ [अतुकान्तिका ]

 449/2022


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✍️ शब्दकार ©

🏔️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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पर्वत की 

ऊँचाइयों पर चढ़ना

औऱ चढ़ते जाना,

सागर की 

गहराइयों में उतरना

औऱ उतरते जाना,

दोनों में लक्ष्य है,

मानव हेतु परीक्ष्य है।


सहज नहीं हैं

गिरि - आरोहण,

निधि - अवगाहन,

चाहिए अदम्य साहस,

दुस्साहस,

जीवट की कशमकश,

सबका नहीं है बस,

अंत में मिलता है,

अतुल्य रस।


चलेंगे जब आप

 गिरि-आरोहण पर

किंवा निधि- अवगाहन पर,

रोकेंगे लोग 

तुम्हारे आगे बढ़ने पर,

जिन्हें कुछ भी 

ज्ञान है न अनुभव,

दे डालेंगे 

अयाचित नसीहत,

कितनी है मूढ़ ये,

इंसान की रुकावट?

तुम्हें बहलायेगी

हवा की हर आहट,

किन्तु नहीं होना है

तुम्हें कदापि कभी

आहत,

बनाए रखनी है

अपनी अटल चाहत।


तुम्हारी सफलता पर

जमाना विजय ध्वज

फहराएगा,

'हमने कहा था न

कि यह एक दिन

नाम कमाएगा,'

 -यही कहेगा

बैंड भी बजायेगा,

किन्तु यदि नहीं मिली

एक प्रतिशत सफलता,

तब भी यही दुहरायेगा

- 'हमने कहा था न,

कि घर का बुद्धू 

लौट कर घर आएगा,'

चित्त या पट्ट में

अंटा तो 

उनके बाप का ही

गहगाहएगा।


मत जाओ इसलिए

जमाने पर,

जमाने की अनुशंसा

कुशंसा पर,

बढ़ते रहना है,

निरन्तर बिना रुके

 'शुभम्'  पथ ही

ग्रहण करना है,

लक्ष्य अवश्य 

विजय का सेहरा

मस्तक पर बाँधेगा,

जमाने की क्या?

वह तो कुछ न कुछ

बड़बड़ायेगा,

गड़बड़ायेगा।

प्रवाह में मुर्दे 

बहा करते हैं,

जिंदा दिल तो

सदा आगे 

बढ़ा करते हैं।


🪴 शुभमस्तु !


27.10.2022◆8.30 

पतनम मार्तण्डस्य।

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