मंगलवार, 30 जून 2020

पावस:2 [ कुण्डलिया ]

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✍ शब्दकार©
⛈️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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-1-
बादल गरजा रात भर,गड़-गड़ करता शोर।
बिजली तड़पे जोर से,लगता डर मन मोर।
लगता डर मन मोर,काँपता जियरा थर थर।
पिया नहीं हैं पास,रात भर होती टर टर।।
'शुभम'बरसती धार,हवा के झूमे दलबल।
कैसे करूँ बचाव, गरजते बरसे बादल।।

-2-
झींगुर  की  झंकार  ये , दे सन्नाटा  चीर।
दादुर दल टर -टर करें,बन प्रतियोगी वीर।
बन प्रतियोगी वीर,मस्त धुन में मतवाले।
उधर मेंढकी मौन,पास आ हमें मना ले।।
जलते दीप पतंग, बरसते भू जल -सीकर।
पावस का है रंग,'शुभम' क्या गाते झींगुर।।

 -3-
पावस के वे दिन गए,नहीं केंचुआ लाल।
बहुत गिजाई दीखतीं, उन्हें खा गया काल।
उन्हें खा गया काल, मखमली वीरबहूटी।
मकिया फूली मेंड़,नहीं  अब वे जल बूटी।
मखमल से शैवाल,न दिखते पूनों मावस।
'शुभम'गए दिन रात,न वैसी आती पावस।।

-4-
झूले डाले  डाल पर, झूलें बहना मात।
झोंटा ले ऊपर चढ़ीं,लहरें केश सुगात।।
लहरें केश सुगात,टपकते टपका  नीचे।
खट्टे - मीठे आम,कोकिला सावन  सींचे।।
सिर ओढ़े तिरपाल, गाँव का मारग भूले।
'शुभम'चहकते बाग,आम की शाखा झूले।।

 -5-
पानी टप-टप हो रहा,सरके इत उत खाट।
कैसे  सोएँ  रात में, करते रहते  बाट।
करते रहते बाट , भोर में चिड़ियाँ  बोलीं।
बिना नींद की भोर,मीजकर आँखें खोलीं।।
ऐसे थे दिन रात, पड़ी  थी टूटी  छानी।
शुभं विमल बरसात,बरसता भूपर  पानी।

💐 शुभमस्तु !

30.06.2020.06.45 अप.।

पावस [ कुण्डलिया ]


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✍ शब्दकार©
⛈️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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                       -1-
बादल नभ में छा गए,आया सावन मास।
मुखड़े खिले किसान के,बँधी मेघ से आस।।
बँधी मेघ से आस, बूँद झरझर के बरसीं
तृप्त उरों की प्यास,नैन की छबियाँ हरसीं।
पावस आया मीत,मेघ के छाए हैं दल।
'शुभम'धरा को आस,बँधाते भूरे बादल।।

                        -2-
झर झर बरसे मेघ दल, हरसे सरसे जीव।
पशु पंछी मानव सभी, कोयल कूके पीव।।
कोयल कूके  पीव, लता  पौधे लहराते।
पीपल शीशम नीम,गगन बा दल गहराते।।
पावस आया झूम,काँवड़ी गाते  हर - हर।
'शुभम'बरसते मेघ,भिगोते शोभन झर झर।।

                          -3-
प्यासी धरती को मिला,जब पावस का नीर।
हरे-हरे अंकुर उगे,हरित धरा का चीर।।
हरित धरा का चीर,फ़सल धानी लहराई।
बादल ने नित झूम,धरा की तृषा बुझाई।।
परिजन करते नाच, कृषक की गई उदासी।
शुभमअन्न फल शाक,दे रही धरती प्यासी।

                         -4-
नाली  नाले  भर गए,भरे खेत खलिहान।
पावस बरसा झूमकर,करता जल का दान।।
करता जल का दान,गली छत बहा पनारा।
सड़कें  गलियाँ डूब,बही पानी की  धारा।।
बालक नंग  धड़ंग, नाचते दे- दे ताली।
'शुभम'नहाते खूब,भले गिर जाते नाली।।

                        -5-
बरसा बादल अवनि पर,भरता सरिता ताल।
मोर नाचते बाग में,सारस करें कमाल।।
सारस करें कमाल, टर्र टर बोलें दादुर।।
बगला उड़ते खेत,सुनाते वे अपने सुर।।
वीरबहूटी लाल, देख मन मेरा हरसा।
पावस 'शुभम' महान,धरा पर बादल बरसा।।

💐 शुभमस्तु !

30.06.2020.10.45 पूर्वाह्न।

सोमवार, 29 जून 2020

अहंकार [ दोहा ]


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✍ शब्दकार©
☘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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अहंकार जो भी करे,होता नष्ट समूल।
धन विद्या या शक्ति का,उगते राह बबूल।।

रावण शिव का भक्तथा, लेकिन बना कुपात्र
काल अहं ऐसा बना,शक्ति नाभिगत मात्र।

अहं रहित मानव अगर,होता देव समान।
मान और अपमान का,नहीं हृदय में भान।।

यौवन मद में चूर हो,भूला सबका मान।
बुरे कर्म में लिप्त नर, दिखलाता है शान।।

अहंकार के वश सभी,डाकू चोर लबार।
दर्प-अश्व पर बैठकर,रहते सदा सवार।।

यौवन मद में झूमती,कामिनि छोड़े बान।
नैनों के शर छोड़ती,ताने देह कमान।।

मद में अंधा कंस भी, भूला बुध्दि विवेक।
दिखती उसको मीच ही तजे काम सब नेक।

तू क्या ऐंठे देह पर, होनी है जो राख।
चार दिनों की चाँदनी,फिर अँधियारा पाख।।

मैं मैं मैं करता रहा,तू को दिया बिसार।
मैं को तज तू को भजे, होकर ईश निसार।।

अहंकार जब टूटता,कुछ भी रहे न शेष।
चिड़ियाँ चुगती खेत जब,नोंचे अपने केश।।

'शुभम'उचित है नम्रता, त्याग दंभ अभिमान।
अहंकार जिसने किया,बचते नाक न कान।।

💐 शुभमस्तु !

29.06.2020 ◆10.45पूर्वाह्न।

मेरी प्यारी विद्या माता [ बाल- वंदना ]


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✍ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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मेरी   प्यारी    विद्या   माता।
तव चरणों में शीश झुकाता।।

सबको    वाणी   देने  वाली।
उर   का तम हर लेने  वाली।।
आँक ज्ञान का हमें न आता।
मेरी  प्यारी    विद्या   माता।।

अक्षर-  ज्ञान  मुझे  करवाओ।
पुस्तक पढ़नाभी सिखलाओ।
लिखना भी तो मुझे न आता।
मेरी  प्यारी    विद्या   माता।।

कोयल  को दी  मीठी  बोली।
भर दो  माँ  मेरी  भी  झोली।।
मोर   पपीहा    सस्वर  गाता।
मेरी    प्यारी    विद्या  माता।।

'अ'से 'ज्ञ'तक सब सिखला दे।
मुझे ज्ञान का  पथ दिखला दे।
जन्म - जन्म का तुझसे नाता।
मेरी    प्यारी   विद्या   माता।।

बचपन  से   दी   तुमने  वाणी।
माता तुम जग की कल्याणी।।
मातु   शारदे  सबकी   त्राता।
मेरी    प्यारी    विद्या  माता।।

💐 शुभमस्तु !

28.06.2020◆3.50 अप.

रविवार, 28 जून 2020

मेरी बुरी बाल -आदतें [ संस्मरण]

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 ✍ लेखक© 
👨‍🎓 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम
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      अभी तक मैं विद्यालय में पढ़ने नहीं जाता था। उस समय मेरी अवस्था लगभग 3-4 वर्ष की रही होगी। मुझे अच्छी तरह याद है कि मेरी अम्मा चूल्हे पर भोजन बनाती थीं।उपले, लकड़ी, अरहर की लौद(फली पत्ती रहित झाड़) आदि से घर पर भोजन बनाया जाता था।होली की आग को एक जलते हुए उपले के माध्यम से प्रति वर्ष पर लाया जाता था और उसी से घर पर गुलरियों की आँगन के बीच रखी हुई होली तथा चूल्हे में आग रखने का श्रीगणेश किया जाता था। यह आग ही प्रतिदिन चूल्हे में आग सुलगाने के काम आती थी। माचिस का प्रयोग बहुत कम किया जाता था।
      सुबह का भोजन बन जाने के बाद माँ बनी हुई राख में एक उपला सुलगाकर गाढ़ देती थी। शाम को उसी को पुनः सुलगाकर खाना बना लिया जाता था।इस प्रकार वर्ष भर होली की उसी आग से भोजन बनता था।यदि कभी ऐसा नहीं हो पाता था , तो माचिस का प्रयोग भी किया जाता था।सब्जी लौकी , कद्दू आदि काटने के लिए घर में हँसिये और चाकू का उपयोग होता था। ये चाकू ,जिन्हें हम चक्कू कहते थे , बड़े उपयोगी होते थे।
      पिताजी घर पर कई चाकू ले आया करते थे। इन चाकुओं के हैंडिल लकड़ी के बने होते थे। आगे की ओर अधिक चौड़ा और पीछे की ओर चाकू का हैंडिल कम चौड़ा होता था। लोहे की धार वाला हिस्सा इसी हैंडिल को बीच में चीर कर एक खाँची में फिट हो जाता था। जरूरत पड़ने पर यहीं से उसे खोला जा सकता था।
          पता नहीं कैसे और कब से मुझे एक बुरी आदत पड़ गई। वह यह कि घर में जैसे ही मेरी नज़र चाकू पर पड़ी , मैं नज़र बचाकर उस चाकू को चूल्हे की उसी आग में गाढ़ देता था , जिसमें माँ कभी -कभी आलू ,शकरकंद , बैंगन आदि भुनने के लिए गाड़ दिया करती थी। बस ये ध्यान रखता था कि कोई देख न ले कि मैं चाकू को चूल्हे में गाड़ रहा हूँ। शाम को जब माँ भोजन बनाने के लिए आग जलाती तो चूल्हे में जले हुए हैंडल का चाकू निकलता । घर में कोई और छोटा बालक तो था नहीं , इसलिए मैं ही दादी बाबा , माता पिता, चाचा का लाड़ला था। सहज ही मेरी हरकत पकड़ में आ जाती। पर इतना अवश्य याद है कि कभी पिटाई नहीं हुई।हाँ, छोटी मोटी डाँट तो पड़ ही जाती थी। लेकिन दो तीन वर्ष तक मेरी यह कुटेब नहीं छूटी।कुछ और बड़ा होने पर मेरा यह 'चाकू जलाओ अभियान' स्वतः बन्द हो गया।क्योंकि अब मैं बड़ा हो गया था। याद नहीं कि उस समय मैंने कितने चाकू चूल्हे की आग में भून डाले। 
 💐 शुभमस्तु !

ग़ज़ल


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✍ शब्दकार©
🙊 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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अपनों   को   देते  गलहार।
गैरों    को   देते    दुतकार।।

तेरे      मेरे     का     है खेल,
अपनों  की   खेते   पतवार।।

गर्द  सियासत   की  भरपूर,
सिर गर्दन    रेते    तलवार।।

जातिवाद    का    देखा  रंग,
दुनिया  के    जेते   अख़बार। 

मुँह    उघाड़ कर   सौंप  रहे, 
बाँट  रहे     केते     उपहार।

न्याय नहीं , चिल्लाते लोग,
नहीं  ध्यान ,लेते दो '-चार।।

दूध    धुले     वे    बने  हुए ,
'शुभम' नहीं    चेते संसार।।

💐 शुभमस्तु!

27.06.2020 ◆11.15पूर्वाह्न

ईश-वंदन [ छंद :रमेश ]


विधान: 111 122  111 
            न       य      न
121
ज  ।
12वर्ण, चार चरण, 2-2चरण समतुकांत।
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✍ शब्दकार©
🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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जग पर ताना विशद वितान।
प्रभु पर मेरा सब बलिदान।।
प्रतिदिन तेरा  कर  गुणगान।
हम बन जाएँ 'शुभम'महान।।

तुम जग के हो प्रभु रखवाल।
हर दम देखो दृष्टि   सँभाल।।
करतल थामो   मम  पतवार।
तन मन तेरा   शुभ उपहार।।

शरण तुम्हारी प्रभुवर     देह।
सृजन तुम्हारा मम यह  देय।।
तन यह नाशी प्रभु अविनाश।
'शुभम'अजाना हम अघपाश।

सब रस   देते   दृश्य  न होय।
अनगिन दाने निशिदिन बोय।
उऋण कभी भी शुभम न होय।
जब बदलेगा तन मन खोय।।

💐 शुभमस्तु !

27.06.2020 ◆10.15 पूर्वाह्न।

बाग [ छंद:रंगी ]


विधान :    212    2
                रगण   गुरु
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✍शब्दकार ©
🌳 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'
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जाग   माली।
तोड़  डाली।।
शूल   फेंको।
फूल   रोको।।

वायु   जागी।
तू   सुभागी।।
नींद  त्यागो।
बाल  जागो।।

बाग    में आ।
फूल   लेजा ।।
शीघ्र  आजा।
फूल   ताज़ा।।

डाल    छाँटो।
झाड़  काटो।।
काज   माली।
साफ   नाली। 

फूल     नीले।
लाल    पीले।।
झूमते      हैं।
चूमते      हैं।।

पीपलों   की।
शीशमों  की।।
डाल    झूमी।
भूमि   चूमी।।

बाग     सारा।
खूब   प्यारा।।
नाचती     है।
कूदती     है।।

देख    रानी।
तेज  पानी।।
बागवानी   ।
आजमानी।।

💐शुभमस्तु !

27.06.2020 ◆8.15 पूर्वाह्न।

शुक्रवार, 26 जून 2020

ध्रुव [अतुकान्तिका]

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✍ शब्दकार©
🎇 डॉ. भगवत स्वरूप' शुभम'
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जो अचल 
अटल है
स्थान पर अपने,
आकाश का
एक नक्षत्र 
ध्रुव है।

आकाश अनन्त
अचल पर्वत
स्वस्थान पर स्थित
वह सब
ध्रुव है।

परब्रह्म
अपरिवर्तनीय
नित्य और
शाश्वत सत्य
सभी ध्रुव हैं।

श्री विष्णु
जगतपालक पिता
भगवतत्त्व है
जिसका अपरिमित
ध्रुव सत्य है।

धरा के 
दो छोर
नुकीले अच्युत
उत्तरी और
दक्षिणी ध्रुव हैं।

चुम्बक में
स्थित 
विपरीत दो छोर
उत्तरी दक्षिणी 
कभी नहीं
मिलते परस्पर
अटल अचल
ध्रुव दोनों।

ध्रुव की ध्रुवता
अटलता
अचलता
पावनता
अपरिवर्तनशीलता
उसकी सच्चरित्रता 
अनुशीलनीय है, 
सुनीति उत्तानपाद
सुत के सदृश
जिसे ध्रुव
कहता है
सम्पूर्ण जगत।

अपने कर्म से
धर्म से
मर्म से
बनें हम ध्रुववत,
आचरण की
पावन शरण, 
नहीं मात्र 
दो चरण
करना है
'शुभम' प्रतिक्षण
उसका वरण।

💐 शुभमस्तु!

25.06.2020◆1.30 अप.

कलश [ गीत ]

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✍ शब्दकार©
🏪 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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मंगल-कलश सजाओ सजनी
पाहुन             आए      द्वार।
झोली भर -भर  फूल बिखेरो
लाओ      सहज       सँवार।।

कब  के  चले आए कब पहुँचे
थके       राह       के      मारे।
भूखे  -  प्यासे  चलते -  चलते 
आए       हैं       पग     हारे।।
शीतल जल से आवभगत कर
अर्पित        कर       उपहार।
मंगल -कलश सजाओ सजनी
पाहुन          आए       द्वार।।

आम्रपत्र     की       वन्दनवारें
कलश,    कलावा ,      डोरी।
नारिकेल  नव सज्जित ऊपर,
अक्षत     दल    औ'     रोरी।।
आरति   सजा  थाल में महके
धूप ,     अगरु     औ'     हार।
मंगल-कलश सजाओ सजनी
पाहुन            आए      द्वार।।

फल,मेवा,  मिष्ठान्न   सजाओ
बेला,    लाल  गुलाब   सुमन।
उर की कली -कली महकाए
हो    जाएं  वे   सहज प्रमन।।
गुँजा  गीत  की वाणी सुमधुर
वीणा       संग          सितार।
मंगल -कलश सजाओ सजनी
पाहुन      आए           द्वार।।

अपनी   छवि का लोभ हमें है
कमी     न        रहने     पाए।
मन में शिकवा और शिकायत
शेष     नहीं     रह      जाए।।
भूलें     नहीं    हमारी    सेवा ,
करें        'शुभम'      विस्तार।
मंगल-कलश सजाओ सजनी
पाहुन        आए          द्वार।।

💐 शुभमस्तु !

23.06.2020◆6.45 अपराह्न।

☘️🌷☘️🌷☘️🌷☘️🌷☘️

हूँ [ चौपाई ]

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✍ शब्दकार ©
🦁 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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'हूँ'    की   सारी  सदा लड़ाई।
लड़ें     पड़ौसी   भाई -भाई।।

'हूँ'  में   अहंकार   की  कारा।
जो विनाश का कारण सारा।।

चीन देश निज 'हूँ' का अंधा।
छोटी  आँखें    छोटा कंधा।।

'हूँ'  'हूँ'  करता नहीं  बोलता।
पत्ते  अपने नहीं    खोलता।।

मेरी  'हूँ'  ने    मुझको  मारा।
निर्मल नहीं  भाव की धारा।।

'हूँ'  का   पर्दा  बुद्धि  चढ़ा है।
अज्ञानी   है   भले    पढ़ा है!!

'हूँ'  है 'हाँ' भी विस्मय भी है।
बहुरूपी  'हूँ'  शब्द  सही है।।

'हूँ '  का  जग में खेल पसारा।
'हूँ'  की  बू में  छीजत  सारा।।

स्वीकृति  वाची भी है 'हूँ'  'हूँ'।
मधुर  कूकता कोकिल कूहूँ।।

दादी    कहती   बाल कहानी।
'हूँ' कह बच्चों को जतलानी।।

जब तक'हूँ'की ध्वनिआती है।
दादी तब तक कह पाती है।।

जब  बालक  की 'हूँ' न सुनाए।
बंद  कहानी    कर सो जाए।।

प्रश्नोत्तर    का   हर   हुंकारा।
'हूँ' लगता   है सबसे प्यारा।।

वर्तमान   'है'  का  उत्तम 'हूँ'।
एक वचन कहलाता है   हूँ।।

'हूँ'  कि यदि दीवार गिराओ।
'शुभम'उजासा उर में पाओ।।

नर - नारी   की यही कहानी।
चटनी 'हूँ' की सबको खानी।।

💐 शुभमस्तु !

24.06.2020◆1.00अप.


मंगल-कलश सजाओ [ गीत ]

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✍ शब्दकार©
🏪 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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मंगल-कलश सजाओ सजनी
पाहुन             आए      द्वार।
झोली भर -भर  फूल बिखेरो
लाओ      सहज       सँवार।।

कब  के  चले आए कब पहुँचे
थके       राह       के      मारे।
भूखे  -  प्यासे  चलते -  चलते 
आए       हैं       पग     हारे।।
शीतल जल से आवभगत कर
अर्पित        कर       उपहार।
मंगल -कलश सजाओ सजनी
पाहुन          आए       द्वार।।

आम्रपत्र     की       वन्दनवारें
कलश,    कलावा ,      डोरी।
नारिकेल  नव सज्जित ऊपर,
अक्षत     दल    औ'     रोरी।।
आरति   सजा  थाल में महके
धूप ,     अगरु     औ'     हार।
मंगल-कलश सजाओ सजनी
पाहुन            आए      द्वार।।

फल,मेवा,  मिष्ठान्न   सजाओ
बेला,    लाल  गुलाब   सुमन।
उर की कली -कली महकाए
हो    जाएं  वे   सहज प्रमन।।
गुँजा  गीत  की वाणी सुमधुर
वीणा       संग          सितार।
मंगल -कलश सजाओ सजनी
पाहुन      आए           द्वार।।

अपनी   छवि का लोभ हमें है
कमी     न        रहने     पाए।
मन में शिकवा और शिकायत
शेष     नहीं     रह      जाए।।
भूलें     नहीं    हमारी    सेवा ,
करें        'शुभम'      विस्तार।
मंगल-कलश सजाओ सजनी
पाहुन        आए          द्वार।।

💐 शुभमस्तु !

23.06.2020◆6.45 अपराह्न।

शक्ति [ दोहे ]

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✍ शब्दकार ©
🏋🏻‍♂️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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शक्ति  बिना   शव  रूप है,
शिव  का  सत्य   स्वरूप।
साँसें   ही  शिव   शक्ति हैं,
वरना   तन     अपरूप।।1

माता    दुर्गा    शक्ति   का,
पूजन    करते           राम।
विजयश्री   ने    वर  लिया,
 युद्ध   क्षेत्र   अभिराम।।2

शक्ति   बिना  जीवन  नहीं,
 रस   विहीन   ज्यों   ईख।
ध्वनिविस्तारक    यंत्र    में,
ध्वनि  उलूक  की चीख।।3

विविधरूपिणी     शक्ति   है,
तन,   मन,   धी    की  शक्ति।
मानव   को    सब   चाहिए, 
हो   यदि    सच्ची   भक्ति।।4

बिना   बुद्धि     की  शक्ति  के, 
मानव         शूकर      श्वान।
बुद्धि      प्रवणता   से    बने,
मानव      यौनि    महान।।5

खान -पान , संतति - सृजन,
करते   खग, मृग ,     श्वान।
बुद्धि    शक्ति   इतनी प्रबल,
होती     बस        इंसान।।6

सात     फीसदी    से   अधिक, 
करता        नहीं         प्रयोग।
शेष     शक्ति    धी    भोथरी,
मानव         का     संयोग।।7

वैभव -   शक्ति    महान है,
आती    शक्ति      विवेक।
वैभव    से    ही     नष्ट हो,
शक्ति  बुद्धि   की  नेक।।8

शक्ति     सिंह    तो  नाम है, 
मच्छर     जितनी     जान।
नाम     बड़ा   छोटा   दरस,
कोरी     तेरी       शान।।9

शक्ति    स्वरूपा      नारियाँ, 
पुरुष     जाति    की शक्ति।
लक्ष्मी,     दुर्गा ,     चंडिका,
जैसी     भी   अनुरक्ति।।10

शक्ति    प्रबल    ऊर्जा 'शुभम',
 विद्युत           प्रकृति     वेग।
पाहन      पिघलें      शक्ति से,
युद्ध     भूमि       में तेग।।11

💐 शुभमस्तु!

23.06.2020 ◆12.30 अपराह्न।

ऋतु वसंत की [ बालगीत ]

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✍ शब्दकार©
🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
★★★★★★★★★★★★★★★★
ऋतु वसंत की है मतवाली।
कोयल कूके डाली -डाली।।

कुहू - कुहू   की मीठी  बोली।
मादक मधुर-मधुर रसगोली।।
कंठ रसीला तन की  काली।
ऋतु  वसंत की है मतवाली।।

अमराई   में    पड़ते    झूले।
बहना  भाभी   कूदे   ऊले।।
हम सब बजा रहे कर ताली।
ऋतु वसंत की है मतवाली।।

तितली फूल -फूल पर जाती।
रस पीने  को  वह मँडराती।।
भौरों की गुन -गुन गुंजा ली।
ऋतु वसंत की  है मतवाली।।

आग   लपट- से  टेसू  फूले।
गेंदा सरसों   में अलि भूले।।
पतझड़ करता पादप खाली।
ऋतु वसंत की है मतवाली।।

माटी  की   सुगंध मत भूलें।
नई  हवा  में   थोड़ा  झूलें।।
होली रँग  से खूब मना ली।
ऋतु वसंत की है मतवाली।।

💐 शुभमस्तु!

22.06.2020◆7.15 अप.

संवाद [ दोहा ]

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✍ शब्दकार ©
📱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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जीवन में संवाद की,बड़ी महत्ता मित्र।
भाषा शैली में सदा, महकाता है  इत्र।।

मधुभाषी  संवाद  हों,  कटुता से नित दूर।
लघु सुबोध लघु मेघ से, निर्मलता भरपूर।।

पत्रों में जो आ रहे, छपकर नित  संवाद।
हो प्रभाव जैसा भले ,अंतर तक हो नाद।।

नाटक में संवाद का, होता बड़ा  महत्त्व।
बिना श्रेष्ठ संवाद के, मरता जीवन तत्त्व।।

कोर्ट कचहरी में बड़ा,होता वाद -विवाद।
दो पक्षों की बहस का ,कह लाता संवाद।।

मोबाइल पर चल रहे, बड़े - बड़े संवाद।
कभी प्रेम के शब्द हैं,होते कभी विवाद।।

जिनके आनन विष बसा, कत हों मीठे बोल।
वे  उगलेंगे  जहर ही ,  संवादों में घोल।।

वाणी में अमृत बसा,वाणी विष की खान।
संवादों को तोलिए,मत कृपाण सी तान।।

भाषा - शैली से  सजा ,  बोल मधुर संवाद।
सत्य और प्रिय जो लगे,लगे न वाद विवाद।।

'शुभम' सहज सुन्दर वचन,होते सुख संवाद।
उर में जाते फूल- से, बनते नहीं  प्रवाद।।

💐 शुभमस्तु!

22.06.2020◆3.45अप.

एक बात कहनी है [ व्यंग्य ]

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✍लेखक © ☎️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 
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 आज के व्हाट्सएपिया युग में ,जो भी कलमकार थोड़ा सा भी अच्छा लिख रहा है, यदि वह ईमानदारी से पटलों से जुड़ना चाहता है औऱ सक्रिय रहना चाहता है। तो वह प्रातः जागने से सोने तक सुबह से शाम तक दैनिक क्रियाएँ भी सही तरीके से नहीं कर सकता, क्योंकि वह स्नानागार या शौचालय के लिए भी तब जाएगा , जब कोई टीका टिप्पणी झाड़ देगा। वहाँ भी उसे यह चिंता रहेगी कि अमुक मंच पर समीक्षा करनी है , अमुक का संचालन ।कहीं रचना लिखनी है तो कहीं पढ़नी भी तो हैं। न वह नहा , खा सकेगा न सो सकेगा। मेरे जैसा बूढ़ा कलमकार जिसे नित्य दिन में भी दो घण्टे सोने को चाहिए , वह क्या करे। किसको खुश करे और किसको नाराज़.?यह आरोप अलग से कि सक्रिय नहीं हैं। अरे भैया !कोई कितना सक्रिय रहे ! हर चीज की एक हद होती है। 
 इन मंचों ने दिन का दिनत्व और रात का शयनत्व ही छीन लिया है। एक साहित्यकार का सबसे बड़ा सुख है ,उसका लेखन। माना कि वह प्रकाश में आना चाहिए ,लेकिन लाखों वाट की बिजली है। आँखें नहीं फूट जाएँगीं। उधर एडमीनों का रोना , जो कोरोना का भी बाप है , कि आप सक्रिय नहीं हैं।
आदमी की महत्वाकांक्षा इतनी कि एक -एक सौ सौ मंचों से जुड़कर अपने को कालिदास औऱ वाल्मीकि का बाप समझने लगा है। 
 कमपाउंडर जब सुई लगाने में पारंगत हो जाता है , तो डॉक्टर का बॉर्ड सजाकर अलग दुकान बना लेता है। बस यही हाल हम कलमकारों का है। कंपोटर से डॉक्टर बनने का यह चाव उन्हें एक अलग मंच बंनाने के लिए बाध्य कर देता है और बरसाती मेंढकों की तरह बिना बरसात बिना तालाब मेढ़क टर्र - टर्र करने लगते हैं और अन्य मेंढकों से यह उम्मीद ही नहीं करते, वरन उन्हें धक्का मार मार कर तुलसीदास बना देना चाहते हैं। बिना मानसून के ही मेंढक टर्राने लगते हैं। 
 अब न अधिकांश मंचों की न कोई मर्यादा रह गई है न अनुशासन। जब अनुशासन ही नहीं तो काहे के कलमकार हो भाई। वह स्त्री या पुरुष साहित्यकार कैसे हो सकता है , जिसे अपनी जन्मतिथि भी ज्ञात नहीं। अथवा उसे ऐसे छिपाया जा रहा है जैसे उनके लिए वर को खोजा जा रहा है ?तो वहाँ तो उम्र कम बताने में ही लाभ है! तारीख महीना सब मिल जाएगा ,पर वर्ष नहीं। अपने परिचय में सेवा निवृत्त भी लिखेंगे/लिखेंगी औऱ दिखाना ये कि अभी सोलह सावन ही झूले हैं।70 साल तक सावन बदला ही नहीं? विश्व का अजूबा? गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड में नाम अंकित करने योग्य घटना? वाह रे ! कलमकारों !! धन्य हो।
 निष्कर्ष विहीन निष्कर्ष यह है कि साहित्य से अधिक आज के साहित्यिक अधिक गुमराह हैं। उन्हें साहित्य से पहले अपने व्यक्तित्व पर ध्यान देने की अधिक आवश्यकता है। जब कलमकार में रंच भी मंच की रंगकारिता नहीं है ,तो कैसा सृजन ? औऱ किसके लिए?? जो अपने को धोखा देकर सबको अंधा समझ रहे हैं , वे क्या हो सकते हैं, स्वतः समझने योग्य है?? 

 💐शुभमस्तु!
 22.06.2020 ◆5.50PM

शांति [ दोहा ]

★★★★★★★★★★★★★★★★★
✍ शब्दकार©
☘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
★★★★★★★★★★★★★★★★★
अरिदल जब फुंकारता,सोहे हमें न शांति।
गोली दें गाली जहाँ, करनी होगी  क्रांति।।

शांति सदा होती भली,शांत नहीं कमजोर।
सुप्त सिंह को मत जगा, बनकर तू बरजोर।।

गलवन घाटी में हुए,जो शहीद रणवीर।
बदला लेंगे क्रांति से,शांत नहीं शमशीर।।

जो शहीद सुरपुर बसे,उनका सब प्रतिशोध।
शांति धर्म को त्यागकर,लेना करके क्रोध।।

घोड़ी का ढब देखकर,बदले मेंढक चाल।
शांति मार्ग को भूलकर,ठुक वाता पगनाल।।

शांति और संतोष से,बनते बिगड़े काम।
साधक सज्जन संतजन,रहें शांति के धाम।।

शांति रहे परिवार में,सुख की बरसे धार।
जहाँ क्लेश होता रहे , दुख का पारावार।।

कलहा कर्कश नारियाँ,नहीं जानतीं शांति।
गली मुहल्ला धाम में,फैलातीं नित भ्रांति।।

कोरोना ने शांति को,भंग किया हर ओर।
रात दिवस भय से भरा,नहीं सुनहरी भोर।।

हर अशांत जन सोचता, कोरोना से खिन्न।
चीन देश ने विश्व में,छोड़ दिया  है    जिन्न।।

सकल विश्व में शांति का, पड़ने लगा अकाल
'शुभं'सुमति भूले सभी,बजी मीच की ताल।
 
💐 शुभमस्तु! 

22.06.2020◆9.30 पूर्वाह्न।

ग़ज़ल

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✍ शब्दकार©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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ऋतु   वासन्ती  की ये  कोई  हार  नहीं।
कूक रही है कोकिल मगर बहार नहीं।।

 इंसानों  की   देह   धरे  जो   घूम रहे,
 इंसाँ   में  गिनती भी मगर शुमार नहीं।

चिड़िया बंदर  सब  आपस में प्रेम करें,
मानव का  मानव से सच्चा यार नहीं।

भाई  को अब दौलत प्यारी लगती है,
भाई  को अब  सहोदरों  से प्यार नहीं।

चार  दिनों का खेल अँधेरी रातें  फिर,
कोई फ़लसफ़ा सुनने  को तैयार नहीं।

कौन भीड़  में  किसे नसीहत क्यों देगा!
हार  भले हो  मगर हार स्वीकार  नहीं।

'शुभम' बुद्धि ने भ्रमित किया है  इंसाँ को,
दिल को  छू  लें   अब ऐसे  उद्गार   नहीं।।

💐 शुभमस्तु!
21.06.2020◆7.00अप.

१०१ श्रीविष्णु नाम स्तुति

✍ शब्दकार ©
🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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हे     वासुदेव!  हे   करूणा पति!!
अणु- अणु में   व्याप्त पतित पावन।
निर्गुण!   निर्लेप!  निरंजन! विभु!
निष्कल! अनंत !  कर पावन मन।।

परमेश्वर!   परानंद!  अव्यय!
षडविंशक  !  महाविष्णु  !अक्षय!
हे नित्य ! अपार !  अनित्य!सत्य!
उर  में  हो  अमल  भाव निर्भय।।

सर्वज्ञ!  सर्व!   सर्वस्य पूज्य!
वेदान्तवेद्य! नित्योदित! हरि!
जगदाश्रय !तम से  परे!हंस!
फँस रही नाव प्रभु जाए तरि।

मायापति!योगपति!जगपति!
पुरुषोत्तम!कालातीत ! पूर्ण!
हे उदासीन!  प्रणव!  तुरीय!
अविनाशी ! कर अज्ञान चूर्ण।।

हे कपिल!ब्रह्मविद्याश्रय!शिव!
हे हृषिकेश !हे संकर्षण!
दुष्प्राप्य !चरणरज लेने की,
टूटें बाधा जल जाएँ व्रण।।

दुर्ज्ञेय!    विश्वमोहन! अक्षर!
प्रद्युम्न! दुरासद! मूलप्रकृति!
स्तुत्य!  विश्वअम्भर!  चक्री!
योगेश्वर!तीर्थपाद!तपनिधि!!

कूटस्थ! काल! आनंद! विष्णु!
कैवल्य पति! असुरान्तक!नर!
हे पुरुष ! श्रीपति !  नित्य श्री!
भगवत  मस्तक हो तव पदतल।।

पीताम्बर!  जगतपिता !ईश्वर!
जगत्राता! जगन्नाथ ! माधव!!
देवादिदेव!   गोविंद!   दिव्य!
हे आदिदेव!कर निर्मलभव ।।

हे राम!   कृष्ण!  हे क्रोधेश्वर!
हे एकवीर! क्षितिपिता! वृषभ!
हे भीम!जगतगुरु!वरद!अनघ!
भगवान!घोर! कविइंद्र!सुखद!


गुरु! वह्नि ! एकपत्नीश!वाद!
नृप!  मेरु !मात! औ' पिता!चेत!
हे अन्न!सुदर्शन!! भगवत पति,
हो  जाऊँ  बलि  तव  चरण हेत।।

💐 शुभमस्तु !

14जुलाई 1972 ई.

सजनी चल री [छंद:तिलका ]

_____
विधान:112     112
 सगण   सगण
2-2 चरण तुकांत। 
06वर्ण प्रति चरण।
_______
सजनी चल री।
भरनी   गगरी।।

सरिता   बहती।
कविता कहती।।

उड़ती   चुनरी।
उलझी सिगरी।।

कत मैं  सुलझूं।
तब मैं चल दूँ।।

पथ में किशना।
अपने वश ना।।

झटके  गगरी।
मथुरा नगरी।।

बतियाँ कल की।
यमुना जल की।।
बजती    मुरली।
बहियाँ   धर ली।।

लगता  डर  है।
कँपता  उर है।।

सखियाँ  डरतीं।
जल ना भरतीं।।

जल   तो  भरना।
फिर क्या करना।।

ब्रज  की  धरती।
सुख  ही भरती।।

चल   री यमुना ।
वन में किशना।।

मत  तू  डर री।
गगरी  भर री।।

💐 शुभमस्तु !

20.06.2020◆2.00अपराह्न।

शारदा -वंदन [ छंद :सुमति ]

_______
विधान: 111   212   111   122
_______
विमल  शारदे  सुमधुर वाणी।
सकल दायिनी तुम कल्याणी।
'शुभम'याचना कर कर ध्याऊँ
भजन मात का निशिदिन गाऊँ।

चरण  आपके  सुत   यह तेरा।
पलक  झाँपते कटत अँधेरा।।
करत  साधना सुतवर तेरी।
'शुभम'वंदना विमल घनेरी।।

दरस   भावना  सुत अनुरागी।
भगति साधना अति बड़भागी
विमल वासना सजधज आवें।
सबद साधना 'शुभम'करावें।।

अटल साँच से विमुख न होऊँ
कवित धार मैं सुखद संजोऊँ।
सुहृद कामना अगजग बोऊँ,
'शुभम'शारदा सत सुत होऊँ।

अमर कौन है इस  जग  माता।
करम मानवी सुखद विधाता।
'शुभम'आशिशी नर वह होता
सबद बीज जो रचकर बोता।।

💐 शुभमस्तु !

20.06.2020 ◆11.55पूर्वाह्न।

पार्वत्य सौंदर्य [ छंद:गजपति]



विधान:111.   211. 12
            न        भ    लगा
_______
बहत    नीर  झरना।
विमल  वरि  भरना।।
पवन   तीव्र  बहना।
मनुज  वीर   सहना।।

बदन   ताप    हरता।
तुहिन  वाष्प तरता।।
वनज  जीव  भगना।
नचत शाख सुगना।।

उछलता     लुढ़कता।
सुघर -   सा सरकता।।
अधर    में   लटकता।
उपल  एक   सजता।।

हिलत   झाड़  कितने।
लगत  पेड़      कँपने।।
अजब   देख   सपना।
पलक भूल   झिपना।।

अचल    शीत  दिखता।
अलख   भूमि सिकता।।
सुमन खूब      मिलता।
'शुभम'  रोम    खिलता।

💐 शुभमस्तु !

20.06.2020◆10.00पूर्वाह्न।

मेरा काव्य लेखन श्रीगणेश [ संस्मरण]


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 ✍ लेखक ©
 🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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                  जब मैं तीसरी कक्षा का छात्र था, मेरी अवस्था दस वर्ष की रही होगी।मुझे कविताओं और गीत आदि पढ़ने का बहुत चाव था। उस समय1962 के चीन भारत युद्ध का वीर रस की ओज पूर्ण भाषा में लिखी हुई एक बीस पच्चीस पृष्ठ की आल्हा की पुस्तक मेरे हाथ लगी। जिसे पढ़कर मैं बहुत आनंदित हुआ। पुस्तक किसी को पढ़कर लौटानी थी ,इसलिए आल्हा याद करने के लिए मैंने पूरी पुस्तक एक चौंसठ पृष्ठ की कैपिटल कॉपी में लिख ली। उसे पढ़ता तो बहुत रोमांच होता। आनन्द भी आता। इसी प्रकार जो भी कविता कहीं से मिल जाती ,उसे उतार कर संरक्षित कर लेता। मेरे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पितामह पूज्य स्व.तोताराम जी के जेल के साथी प. भोजदत्त शर्मा ,आगरा की लिखी हुई आल्हा की पुस्तक भी मैंने सहेज रख ली औऱ समय -समय पर उसे पढ़ता। इस प्रकार मेरी पसंद की रचनाओं को संग्रह करने के लिए मेरी 240 पृष्ठ वाली कापियां , जो उस समय चौदह आने की आती थीं, कविताओं से सजने लगीं।
                    यह सिलसिला लगभग एक वर्ष चला होगा कि अनायास मेरे मन में स्वयं कविता का बीज अंकुरित होने लगा और मन के भाव कागज पर रूपाकार देने के लिए मचलने लगे। वर्ष 1963 चल रहा था कि अनायास मेरे द्वारा एक 8-10 पंक्तियों की रचना मेरी कॉपी के एक पृष्ठ पर साकार हो ही गई। महीना और तारीख मुझे याद नहीं हैं । बचपन से ही मुझे अपनी कॉपी , किताब या अन्य कोई वस्तु को सजाकर सँभाल कर रखने की आदत थी। जो धीरे -धीरे मेरा संस्कार बन गई। मेरी यह आदत आज भी उसी तरह से है , जैसे बचपन में थी। यही कारण है कि मेरी उस समय से आज तक लिखी गई सभी रचनाएँ , जिनकी संख्या लगभग 4000 से अधिक होगी; आज भी सुरक्षित हैं।उन्हीं में से अब तक कुछ खंड काव्य एक महाकाव्य और कुछ स्फुट विधा संग्रह सहित दस ग्रंथ प्रकाशित भी हो चुके हैं। 
                     मुझे प्रकृति को देखकर बहुत आनन्द आता था। इसलिए पावस , शरद ,ग्रीष्म ,पेड़ ,पौधों,लताओं, नदियों , सूरज , चाँद , सितारों ,चिड़ियों ,को लेकर अनायास ही लेखनी चलने लगी। किन्तु आश्चर्य की बात है कि मेरी प्रथम काव्य रचना प्रकृति सम्बन्धी नहीं थी, बल्कि वह एक नीतिपरक औऱ उपदेशात्मक रचना थी। मेरी वह प्रथम रचना, जिसका शीर्षक सब्र करो है, इस प्रकार है: 
            सब्र करो 
सब्र   करो     अरु   प्रेम से बोलो,
 दुःख   का   नाम   कभी मत लो।
सत्य   बोलकर  मृषा    मिटाओ, 
कोरी      बातें        त्याग   दो।।
राम  -  राम       का  नाम   रटो,
 अरु   सत्य  वचन पालन कर्ता।
 शंका   न    हृदय   पर रहती है,
सारा     चिंता -     सागर हरता।।
 गाली   के     बदले      में गाली ,
 कभी    किसी     को   मत देना। 
मधुर      मुख    से  मीठा बोलो,
कड़वी      बातें   मत   कहना।।
 अपना    धर्म     हमारा   ही है ,
पाप   निधि       दानव    भावें।
 मानव       का   कर्तव्य एकता ,
प्रेम - भाव    जग   में    छावें।।
 सब्र   करो   अरु प्रेम से बोलो,
 दुःख    का नाम कभी मत लो।
 सत्य   बोलकर  मृषा मिटा दो,
कोरी       बातें   त्याग         दो।।
 रचना काल:1963 ई0
            इस रचना के बाद लिखी गई कुछ प्रमुख रचनाओं के शीर्षक इस प्रकार हैं: हमारा राष्ट्र ध्वज, फिर उमड़ श्याम बादल आए, अक्षर पद्य (मात्रा विहीन रचना), प्रवीण प्रहरी, भारत माता की वंदना, दीप प्रभा, एकता और मानव, कहता वसंत प्रिय पावस से, अकवि रचित अकविता ,वर्षा विहार, वह पावस की रात, हे प्रभु प्रकृति कितनी निरुपम, नव नील अम्बर, भगवान श्रीकृष्ण का विश्वरूप दर्शन(गीता के 11वें अध्याय का काव्यानुवाद), भगवान बुद्ध ,101 विष्णु नाम स्तुति, ऋतुराज करें हम अभिनंदन, हमारा अन्नदाता, प्रगति शल्य (अतुकांत कविता), माँ भारती आदि।
              इस प्रकार माँ सरस्वती के कृपा कर की रश्मियों से सज्जित मेरी काव्य रचना यात्रा का श्रीगणेश हो गया।जो कभी रुकता ,थमता आगे बढ़ता रहा। 1969 से काव्य रचनाएँ ,कहानियां , एकांकी , शोध लेख देश की प्रमुख पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे। मेरा प्रथम शोध लेख राजकीय इंटरमीडिएट कालेज , आगरा की वार्षिक पत्रिका में 1969 में प्रकाशित हुआ।लेख का शीर्षक था: पहिया या वृत्ताकार ।उस समय मैं हाई स्कूल का विज्ञान वर्ग का विद्यार्थी था। तब से प्रकाशन का सिलसिला निरन्तर चलता रहा। ईश्वर ने मुझे जिस कार्य के लिए संसार में भेजा है , उसे निष्ठापूर्वक करना अपना नैतिक दायित्व मानता हूँ। शायद इसी के द्वारा मानवता का हित मेरे द्वारा हो सके , तो मैं अपने मानव जीवन को सार्थक समझूँगा।
 💐 शुभमस्तु! 

पिताजी की निशानेबाजी [ संस्मरण ]


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✍लेखक ©
 🔫 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम
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यह बात उस समय की है , जब मेरी अवस्था लगभग आठ - नौ वर्ष की  रही होगी।प्रत्येक वर्ष 15 अगस्त को पिताजी को क्षेत्र के अन्य बंदूकधारियों की तरह छलेसर के जंगल में स्थित 'समर हाउस' में निशानेबाजी के लिए आमंत्रित किया जाता था। जब मैं  बहुत छोटा था ,तब वह अकेले ही साइकिल से जाते थे। इस बार मुझे भी साइकिल के डंडे पर बिठाकर वह 'समर हाउस' पहुँचे।
           करवन नदी या झरना में उस समय खूब सारा स्वच्छ पानी होता था। घर से लगभग तीन किलोमीटर चलने के बाद एक झरना था, कभी कभी  जिसमें नहाने के लिए हम बच्चे लोग जाया करते थे। झरने के ऊपर एक पुल भी बना हुआ था। उसी पुल को जंगल के रास्ते से गुजरने बाद 'समर हाउस' बना हुआ था, जो प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर एक रमणीक स्थल था। जिसमें अनेक प्रकार के सुगंधित फूल वाले पौधे उगाए जाते थे। वैसा ही सुंदर हाउस बना हुआ था, जिसमें कुछ स्तम्भों पर एक गोलाकार छत पड़ी हुई थी। नीचे का फर्श पक्का और सुंदर था। समर हाउस के चारों ओर सुंदर बगीचा था। इस हाउस में वन विभाग के रेंजर आदि अधिकारी भी रहते थे। 
                 लगभग 10-15 बंदूकधारियों को उस गोल समर हाउस में पड़ी हुई गोल मेज के चारों ओर बैठा दिया गया। मैं पिताजी के पास एक कुर्सी पर बैठा यह खेल देख रहा था। सामने लगभग एक फर्लांग की दूरी पर मिट्टी की लाल मटकियाँ बाँसों पर टाँग दी गई थीं। प्रत्येक व्यक्ति को एक निर्धारित मटकी में निशाना लगाना होता था । मैंने देखा कि जब पिताजी की बारी आई तो धायं की आवाज हुई और लक्ष्य मटकी के टुकड़े -टुकड़े हो गए। तालियां बजीं। शाबाश !वाह!वाह !! की ध्वनियां हुईं।     निशाने बाजी पूरी होने के बाद फलों का नाश्ता भी कराया गया। साथ ही जिसे मैं उस समय नहींजानता था कि ये क्या है , उन्हें भी पिलाया गया।मुझे नहीं दिया गया। वह सफेद और गाढ़ा - गाढ़ा पेय पदार्थ लस्सी थी , जिसमें भाँग भी पड़ी हुई थी, दिया गया। पार्टी होने के बाद सभी लोग ससम्मान विदा कर दिए गए।
           पिताजी औऱ मैं घर की ओर लौटने लगे कि घर से पचास कदम ही पहले पहुँचे होंगे, पिताजी ने दगरे की मेंड़ पर अपना बायां पैर टेका ही था कि यह क्या ? फिर उनसे एक पैडल भी साइकिल आगे नहीं बढ़ सकी। मैं डंडे से नीचे आया और घर पर बाबा दादी और माँ को सूचना दी, तब वे उन्हें वहाँ से साइकिल से उतार कर लाए। उन्हें भाँग का नशा हो गया था। उनका वह नशा अगले दिन सुबह को उतर सका। पिताजी घर पर कभी भाँग का सेवन नहीं करते थे , संभवतः इसीलिए वे समर हाउस से घर तक सकुशल पहुँच तो गए , लेकिन जब पैर रुक गया तो एक इंच भी साइकिल को बढ़ाना असम्भव हो गया। ये भी जीवन का एक अनुभव है , जब पिताजी को भाँग का नशा हुआ। यह वाक्या 1962 के आसपास का है। 
 💐 शुभमस्तु! 
 26.06.2020 ◆12.55 अपराह्न। 

शुक्रवार, 19 जून 2020

देवीछन्द


 विधान: II S S
★★★★★★★★★★★★★★★★★
✍ शब्दकार ©
🤾🏻‍♂️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
★★★★★★★★★★★★★★★★★
रुक जाना।
मत लाना।।
बतलाना ।
समझाना।।

लिख लेना।
मत देना।।
कर जाना।
तब जाना।।

अपनाना।
जतलाना।।
सुन पाना।
दिख जाना।।

चल राधा ।
बिन बाधा।।
सिर काँधा।
मुँह बाँधा।।

हकलाना।
तुतलाना।।
सुतवाना।
नित जाना।।

💐 शुभमस्तु !

17.06.2020 ◆5.15 अपराह्न।

कृष्ण/वपु छन्द


 विधान: ss II
★★★★★★★★★★★★★★★★★
✍ शब्दकार ©
🤾🏻‍♂️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
★★★★★★★★★★★★★★★★
काला धन।
नेता चुन।।
 बेचो मन।
साधो सुन।।

आया रवि।
जागा कवि।।
जोड़ो कर।
मोड़ो सिर।।

सूना पन।
ऊना सुन।।
दूना गुन।
छूना मन।।

आया वह।
छाया वह।।
गाता रह।
भाता रह।।

राधा  चल।
आया हल।।
माया छल।
पाका फल।

💐 शुभमस्तु !

17.06.2020 ◆3.30 अपराह्न।

क्रीड़ा छंद


 विधान: I sss
★★★★★★★★★★★★★★★★★
✍ शब्दकार ©
🤾🏻‍♂️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
★★★★★★★★★★★★★★★★★
चलें मेला ।
लदे ठेला।।
पके केला।
चला रेला।।

कभी अना ।
सभी जाना।।
महा    भारी।
सजी क्यारी।।

नहीं रूठो ।
मजा लूटो।।
चली जाना।
धरो बाना।।

चलो राधा ।
नहीं बाधा।।
महामारी।
सदाचारी।।

नहा धोएँ।
चलो सोएँ।।
घनी रातें ।
करें बातें।।

💐 शुभमस्तु !

17.06.2020 ◆2.15 अपराह्न।

तिन्ना छंद☘️☘️


 विधान: sss  s
★★★★★★★★★★★★★★★★★
✍ शब्दकार ©
☘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
★★★★★★★★★★★★★★★★★
   माता    आओ।
   आशा  लाओ।।
   मैं  हूँ   प्यासा।
  माँ   से आशा।।
    
    माँ   का  सारा।
    न्यारा   प्यारा।।
    नैना      तारा ।
    माँ   से   हारा।।

    ये      कोरोना।
   कैसा    सोना।।
   आँसू      पीना ।
    कैसा   जीना।।

     तूने       जाना ।
     मैंने      माना।।
     ताना     बाना।
     काँटे    नाना।।

     गा    गा   गाना।
     जो  भी  गाना।।
     मीठा    खाना।
     नामा    लाना।।

💐 शुभमस्तु !

17.06.2020 ◆12.30 अपराह्न।

हिंद [आह्वान गीत]


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✍ शब्दकार©
🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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हिन्द   देश  के  वीरो  जागो!
छोड़ खुमारी   निद्रा त्यागो!!

चीन शीश पर चढ़ आया है।
आँख  दिखाकर  गुर्राया है।।
कह दो उससे   पीछे भागो।
हिन्द  देश के  वीरो  जागो!!

जो   छेड़ेगा    खैर  नहीं  है।
हमें किसी   से  बैर नहीं है।।
अपने  बिल में  भागो नागो!
हिन्द देश   के  वीरो जागो!!

नियत चीन की दूषित भारी।
कोरोना की   दी    बीमारी।।
धोखे    की  टट्टी जलवा दो।
हिन्द देश के   वीरो जागो!!

आधी     तेरी  आँख बंद हैं।
कर दें  सारी ज्योति मंद हैं।।
देंगे नहीं क्षमा,  यदि माँगो।
हिन्द देश के वीरो  जागो!!

धोखे से   तू    सैनिक  मारे।
हिन्द देश का   बाग  उजारे।।
मत   इतराना   गोरे  कागो।।
हिन्द देश  के वीरो  जागो!!

नहीं  उगलतीं   गन ये पानी।
दुनिया   देख  आग  थर्रानी।।
भला यही    है  बैर न पागो।
हिन्द  देश  के  वीरो जागो!!

जिसने हमें आँख दिखलाई।
फोड़ी  दोनों    बंद दिखाई।।
झूठे  को  सच्चा मत जानो।
हिन्द देश  के  वीरो जागो!!

💐 शुभमस्तु !

17.06.2020◆9.00 पूर्वाह्न।

चाल [ दोहा ]


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✍  शब्दकार©
🐟 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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मदमाती तव चाल पर,देता है उर ताल।
कहने से   रुकता नहीं,   ऐसा है बेहाल।।

शकुनि चाल में फँस गए,सब पांडव रणधीर।
पासे  फेंके  छद्म  के ,उड़ा द्रौपदी  चीर।।

चाल एकरस जो चले,पाते वे गंतव्य।
विपदा मेंभी धीरधर,करते वे कर्तव्य।।

अश्व खरीदें यदि कभी,पहले देखें चाल।
चाल न कोई दे सके,देखें प्रथम सँभाल।

मधुशाला से चल दिया,एक पियक्कड़ लाल।
डगमग डगमग कर रहा, सहज नहीं है चाल।

यश पाया जग में बड़ा,कछु आ जी की चाल
जो अबाध चलता रहा, विजयश्री गलमाल।।

पिछवाड़े में एक घर, कुछ जन की है चाल।
पता नहीं वे  कौन हैं, कैसा घर  का हाल!

चींटी चढ़ी पहाड़ पर,मंद मंद मधु चाल।
गिरती फिर उठती पुनः,लेती स्वयं सँभाल।

साँझ हुई रवि अस्त है,नहीं पखेरू चाल।
वन में  सन्नाटा  बढ़ा, पंछी नीड़ निढाल।

शंख बजा जब कूच का,पड़ी छावनी चाल।
कंधे फड़के वीर के,चमके मुखड़े भाल।

आते ही बारात के युवती नारी चाल।
दर्पण के आगे सजीं,चमकाएं भ्रू गाल।

इंजन के पुर्जे सभी,करते अपना काम।
अपनी 2 चाल से,अनथक बिना विराम।।

कोरोना के काल में,दफ्तर की हर चाल।
मंद मंद है भोथरी,कोरोना भौकाल।।

नई चाल के वसन हैं, नई चाल के बाल।
नई चाल के लोग भी,लोटा थाली थाल।।

चाल बदल समझा उसे, कौशल से बदलाव।
जीवन में होता सकल,निर्मल विशद प्रभाव।

चाल समझते चीन की,भारत वासी खूब।
हम ऐसी माटी नहीं,जमे न तेरी दूब।।

सीधा -सादा आदमी,फँसा ठगों की चाल।
मूर्ख बनाकर ले उड़े,उसका सारा माल।।

तज साड़ी की चाल को,कुर्ता औ'सलवार।
अपनाती हैं नारियाँ,बदली रूप बहार।।

एक चाल में जिंदगी,उसकी बीते आज।
मजदूरी से पेट भर,रहता जो मुंहताज।।

चाल देखकर नारि की,गया पुरुष का धीर।
ज्यों घूँघट मुख से उड़ा,रही न उर की पीर।।

चाल चाल में भेद है,चाल चाल भूचाल।
चालाकी भी चाल है,गति धोखा भी चाल।।
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1.चलना,2.धोखा,3.गति, 4.गति , धोखा।5.गति,6.गति
7.आहट,8.गति,9.आहट,10. हलचल,11.चहल- पहल,12. कार्यप्रणाली,13.तत्परता,14.ढब,15.युक्ति,16.चालाकी,17.
धोखा,18.फैशन ,प्रचलन।
19.घर ,20.गति,21.विविध अर्थ।
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💐 शुभमस्तु !

16.06.2020◆3.30 अप.

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जंग [ गीत ]


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✍ शब्दकार©
🏹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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हमको   कोई  आँख दिखाए।
मुँह की खाए  फिर पछताए।।

हमें  नहीं  है  शौक  जंग का।
 हम फुव्वारा  सप्त रंग का।।
क्यों सरहद पर नाच नचाये।
हमको कोई आँख दिखाए।।

जंग   हमें  भी  करनी आती।
दुश्मन    की  छाती  थर्राती।।
पीठ  दिखा वापस घर जाए।
हमको कोई  आँख  दिखाए।।

बड़े     जंगजू    देखे   हमने।
चीन पाक   के   तोड़े सपने।।
कैसे  तू   अधिकार   जताए?
हमको कोई आँख दिखाए।।

फूँके   हमने   शंख  शांति के।
नहीं  सुनेंगे  वचन  भ्रांति के।।
हमें   एकता    शांति  सुहाए।
हमको  कोई  आँख दिखाए।।

हथियारों  में   जंग    नहीं है।
यान ,टैंक ,बम सभी सही हैं।।
तू क्या अपनी  शान जताए!
हमको कोई आँख  दिखाए।।

इधर   चीन   नापाक उधर है।
खुली आँख का दृष्टि सफर है
नेपाली   को   भी   उकसाए।
हमको कोई  आँख दिखाए।।

बड़ी- बड़ी  बातें क्यों करता?
भारत   के वीरों  से डरता ??
बार -बार   हमको अजमाए।
हमको कोई  आँख दिखाए।।

💐 शुभमस्तु !

16.06.2020 ◆9.30 पूर्वाह्न।

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पायल💃💃 [कुण्डलिया]

 
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✍ शब्दकार ©
💃 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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 पायल बजती पाँव में,रुनझुन रुनझुन नाद।
घुँघरू  पैरों  से  करें, गीत   भरे    संवाद।।
गीत भरे संवाद,हृदय कलिका खिल जाती।
मिला निमंत्रण मौन,गज़ब नर पर भी ढाती।।
'शुभम'जगाती चाव,सदा करती उर घायल।
जब होती है शांत,घाव भरती पग पायल।।

पायल भूषण पाँव का,नारी का पग चैन।
घर आँगन छुनछुन बजे,चुप अँगना के बैन।।
चुप अँगना के बैन,निमंत्रण की संकेतक।
विनत नैन में लाज,प्रणय याच न संचेतक।।
'शुभम'सलज संवाद,हृदय को करते घायल।
बजता नव संगीत,रजत की प्रेमिल पायल।।

पायल बेड़ी पैर की,नारी पग प्रतिबंध।
भंग नहीं सीमा करें,चले मंद ही मंद।।
चले मंद ही मंद, मोहती मन को नर के।
गूँजे मधु संगीत,सुखी परिजन घर भर के।
शुभम रजत का मोह,सभी नर धी के कायल
मर्यादा की सीख दे रही,पग की पायल।।

पायल तू बड़भागिनी, प्रति क्षण छूती पाँव।
सदा संगिनी नारि की,घर बाहर या गाँव।।
घर बाहर या गाँव, नचाती है वामा को।
बनती तन शृंगार, सजाती तू कामा को।।
शुभं सुरुचि का साज, चलाती नारि मिसाइल
अनदेखे ही घात,पुरुष को घायल पायल।।

पायल की झंकार से,मन होता मदहोश।
धीरे -धीरे तुम चलो,कुछ पल ले लूँ होश।
कुछ पल ले लूँ होश, सँभल जाने दो मुझको।
होता मन बैचेन,कहर  ढाना है तुझको।।
'शुभम' तीर संधान,किया करता यों घायल।
चलती कामकमान,पाँव दो बजती पायल

💐 शुभमस्तु !

15.06.2020 ◆ 2.30 अप .

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स्नेह [ दोहा ]


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✍ शब्दकार ©
🌸  डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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प्रथम स्नेह माँ का मिला,बाद पिता का नेह।
गुरुजन परिजन के नयन,भरे नेह के मेह।।

शिष्यों को गुरुनेह का,है पूरा अधिकार।
सूखे पादप नेह बिन,जल ही मूलाधार।।

स्नेह दूध से जब मिला,कह लाया नवनीत।
करे पुष्टि मस्तिष्क की,हुई ज्ञान की जीत।।

जामन देकर  दूध में,जमा  दही अभिराम।
मंथन कर तब तक्र का,स्नेह मिला बहुकाम

पेरी सरसों नेह को,कोल्हू में दी डाल।
गाढ़े पीले स्नेह का,देखो 'शुभम'कमाल।।

सबके सिर मस्तिष्क में,भरा स्नेह धी मूल।
मज्जा से हर अस्थि में , बनें रक्त के फूल।।

पिल्ला भी हर श्वान का,जाने स्नेह दुलार।
दौड़ा आता पास में,यदि बोलो पुचकार।।

खाने से उत्तम सदा,स्नेह लगा पर-देह।
चापलूस चमचा कहे,दुनिया निस्संदेह।।

नेताजी की देह पर,लगा स्नेह नवनीत।
चमचम चमके चर्म भी,बन जाएंगे मीत।।

मर्दन करते स्नेह का,जब हो तन में रोग।
पीड़ाहारी  नेह से, होते  जन नीरोग।।

महिमा मानव नेह की,छाई जगत अपार।
शुभ सकार होता सदा,हरता विपुल विकार।

  💐शुभमस्तु!

15.06.2020 10.30 पूर्वाह्न।

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मेरा काव्य लेखन श्रीगणेश [ संस्मरण]

मेरा काव्य लेखन श्रीगणेश
 [ संस्मरण]
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 ✍ लेखक ©
 🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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                  जब मैं तीसरी कक्षा का छात्र था, मेरी अवस्था दस वर्ष की रही होगी।मुझे कविताओं और गीत आदि पढ़ने का बहुत चाव था। उस समय1962 के चीन भारत युद्ध का वीर रस की ओज पूर्ण भाषा में लिखी हुई एक बीस पच्चीस पृष्ठ की आल्हा की पुस्तक मेरे हाथ लगी। जिसे पढ़कर मैं बहुत आनंदित हुआ। पुस्तक किसी को पढ़कर लौटानी थी ,इसलिए आल्हा याद करने के लिए मैंने पूरी पुस्तक एक चौंसठ पृष्ठ की कैपिटल कॉपी में लिख ली। उसे पढ़ता तो बहुत रोमांच होता। आनन्द भी आता। इसी प्रकार जो भी कविता कहीं से मिल जाती ,उसे उतार कर संरक्षित कर लेता। मेरे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पितामह पूज्य स्व.तोताराम जी के जेल के साथी प. भोजदत्त शर्मा ,आगरा की लिखी हुई आल्हा की पुस्तक भी मैंने सहेज रख ली औऱ समय -समय पर उसे पढ़ता। इस प्रकार मेरी पसंद की रचनाओं को संग्रह करने के लिए मेरी 240 पृष्ठ वाली कापियां , जो उस समय चौदह आने की आती थीं, कविताओं से सजने लगीं।
                    यह सिलसिला लगभग एक वर्ष चला होगा कि अनायास मेरे मन में स्वयं कविता का बीज अंकुरित होने लगा और मन के भाव कागज पर रूपाकार देने के लिए मचलने लगे। वर्ष 1963 चल रहा था कि अनायास मेरे द्वारा एक 8-10 पंक्तियों की रचना मेरी कॉपी के एक पृष्ठ पर साकार हो ही गई। महीना और तारीख मुझे याद नहीं हैं । बचपन से ही मुझे अपनी कॉपी , किताब या अन्य कोई वस्तु को सजाकर सँभाल कर रखने की आदत थी। जो धीरे -धीरे मेरा संस्कार बन गई। मेरी यह आदत आज भी उसी तरह से है , जैसे बचपन में थी। यही कारण है कि मेरी उस समय से आज तक लिखी गई सभी रचनाएँ , जिनकी संख्या लगभग 4000 से अधिक होगी; आज भी सुरक्षित हैं।उन्हीं में से अब तक कुछ खंड काव्य एक महाकाव्य और कुछ स्फुट विधा संग्रह सहित दस ग्रंथ प्रकाशित भी हो चुके हैं। 
                     मुझे प्रकृति को देखकर बहुत आनन्द आता था। इसलिए पावस , शरद ,ग्रीष्म ,पेड़ ,पौधों,लताओं, नदियों , सूरज , चाँद , सितारों ,चिड़ियों ,को लेकर अनायास ही लेखनी चलने लगी। किन्तु आश्चर्य की बात है कि मेरी प्रथम काव्य रचना प्रकृति सम्बन्धी नहीं थी, बल्कि वह एक नीतिपरक औऱ उपदेशात्मक रचना थी। मेरी वह प्रथम रचना, जिसका शीर्षक सब्र करो है, इस प्रकार है: 
            सब्र करो 
सब्र   करो     अरु   प्रेम से बोलो,
 दुःख   का   नाम   कभी मत लो। 
सत्य   बोलकर  मृषा    मिटाओ, 
कोरी      बातें        त्याग   दो।। 
राम  -  राम       का  नाम   रटो,
 अरु   सत्य  वचन पालन कर्ता।
 शंका   न    हृदय   पर रहती है, 
सारा     चिंता -     सागर हरता।।
 गाली   के     बदले      में गाली ,
 कभी    किसी     को   मत देना। 
मधुर      मुख    से  मीठा बोलो, 
कड़वी      बातें   मत   कहना।।
 अपना    धर्म     हमारा   ही है ,
पाप   निधि       दानव    भावें।
 मानव       का   कर्तव्य एकता , 
प्रेम - भाव    जग   में    छावें।।
 सब्र   करो   अरु प्रेम से बोलो,
 दुःख    का नाम कभी मत लो।
 सत्य   बोलकर  मृषा मिटा दो, 
कोरी       बातें   त्याग         दो।।
 रचना काल:1963 ई0
            इस रचना के बाद लिखी गई कुछ प्रमुख रचनाओं के शीर्षक इस प्रकार हैं: हमारा राष्ट्र ध्वज, फिर उमड़ श्याम बादल आए, अक्षर पद्य (मात्रा विहीन रचना), प्रवीण प्रहरी, भारत माता की वंदना, दीप प्रभा, एकता और मानव, कहता वसंत प्रिय पावस से, अकवि रचित अकविता ,वर्षा विहार, वह पावस की रात, हे प्रभु प्रकृति कितनी निरुपम, नव नील अम्बर, भगवान श्रीकृष्ण का विश्वरूप दर्शन(गीता के 11वें अध्याय का काव्यानुवाद), भगवान बुद्ध ,101 विष्णु नाम स्तुति, ऋतुराज करें हम अभिनंदन, हमारा अन्नदाता, प्रगति शल्य (अतुकांत कविता), माँ भारती आदि।
              इस प्रकार माँ सरस्वती के कृपा कर की रश्मियों से सज्जित मेरी काव्य रचना यात्रा का श्रीगणेश हो गया।जो कभी रुकता ,थमता आगे बढ़ता रहा। 1969 से काव्य रचनाएँ ,कहानियां , एकांकी , शोध लेख देश की प्रमुख पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे। मेरा प्रथम शोध लेख राजकीय इंटरमीडिएट कालेज , आगरा की वार्षिक पत्रिका में 1969 में प्रकाशित हुआ। उस समय मैं हाई स्कूल का विज्ञान वर्ग का विद्यार्थी था। तब से प्रकाशन का सिलसिला निरन्तर चलता रहा। ईश्वर ने मुझे जिस कार्य के लिए संसार में भेजा है , उसे निष्ठापूर्वक करना अपना नैतिक दायित्व मानता हूँ। शायद इसी के द्वारा मानवता का हित मेरे द्वारा हो सके , तो मैं अपने मानव जीवन को सार्थक समझूँगा।
 💐 शुभमस्तु! 

 19.06.2020 ◆5.50 अपराह्न। 

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रविवार, 14 जून 2020

जूते और पोथी [कुण्डलिया ]


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✍ शब्दकार©
📙  डॉ. भगवत स्वरूप शुभम'
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जूते     सोहें   मंच      पर,  पोथी खाएँ धूर।
पड़ी    हुईं फुटपाथ पर,बिकने को मजबूर।
बिकने       को मजबूर,भाव रद्दी के  जातीं।
पोथी    गीता आदि ,पड़ी  भूपर  शर्मातीं।।
'शुभम'    बड़ा बदहाल, पुस्तकें किसके बूते।
देखो     वे  खुशहाल,  सजे ए सी में जूते।।

जूते   हैं      शोरूम    में, ग्रंथों  का क्या मोल!
जूते   पाँच   हजार में,पुस्तक बिकतीं तोल।।
पुस्तक बिकतीं तोल,ज्ञान को कौन पूँछता।
फिरते     सौ -सौ चौंर,उपानह मनुज बूझता।।
'शुभम'  ग्रंथ हैं  मौन, श्वान आ- आकर सूते।
नाले     तट पर ग्रंथ ,महक  में चमके  जूते।।

जूते      का ही मोल है ,जूता ही अनमोल।
रद्दी   में  विद्या बिके,  ज्ञान  हो गया  गोल।।
ज्ञान    हो गया गोल, चमक जूते की चमके।
दर्पण    का दे काम , ज्ञान एड़ी में धमके।।
'शुभम'    बुद्धि  में सून,  आदमी कैसे कूँते।
बगुला      जैसा  सूट ,  पाँव   में चमकें जूते।।

जूते    की महिमा बड़ी ,जानें जाननहार ।
नेताजी     के  कर्म से, बनते  वे गलहार।
बनते       वे    गलहार , चुनावी वादे   झूठे।
मारें     भी  दो चार,अगर जनता जी रूठे।।
'शुभम '     ग्रंथ का लेख,न नेता पढ़ते  छूते।
नीतिपरक हों काज,नहीं फिर मिलते जूते।।

जूते  हाई  हील  के ,कमर मट कती चाल।
गिरने    की  चिंता नहीं,हो कैसा भी हाल।।
हो    कैसा     भी हाल,हाथ  में दाबे   पोथी।
मोबाइल में  कान,ज्ञान की गठरी  थोथी।।
'शुभम'   युवांगी एक, स्वेद कण भारी चूते। 
 नटनी    जैसा    हाल,  उचकते नीचे  जूते।।

💐 शुभमस्तु !

13.06.2020◆2.30 अप.

नमो मातु वीणा [छंद :सोमराजी/शंखनादी ]


विधान -यमाता  यमाता
            ISS.    ISS  : 06वर्ण।दो चरण तुकांत।
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✍ शब्दकार ©
🍀 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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नमो      मातु     वीणा।
अजेया          प्रवीणा।।
सुमेधा            सुगाथा।
करो     माँ      सनाथा।।

तुम्हारा              सहारा।
मिले     जो     किनारा ।।
नहीं        ये       हमारा ।
सभी     है        तुम्हारा।।

तुम्हीं        नाम       देतीं।
तुम्हीं      नाव       खेतीं।।
तुम्हें          ही     निहारें।
मिलेंगीं              बहारें।।

अँधेरा       हरो       माँ।
उजाला       करो    माँ।।
उरों    में     भरो     माँ।
मिटें     पाप       हिंसा।।

तुम्हें    माँ       भजूँ   मैं।
निराशा       तजूँ      मैं।।
प्रमादी      'शुभं '     मैं।
अहंता      हरूँ        मैं।।

💐 शुभमस्तु !

13.06.2020 ◆1.00 अप.

मेरी शिक्षा का श्रीगणेश [ संस्मरण]



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 ✍लेखक : © 
⛳ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 
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            बचपन में मुझे पढ़ने-लिखने में कोई रुचि नहीं थी। गाँव के ही पास के गाँव धौरऊ में एक बड़ी सी पुरानी कोठी में में बेसिक स्कूल था , जिसमें गाँव के बहुत से बच्चे पढ़ने जाया करते थे।किंतु मैं स्कूल में पढ़ने नहीं जाता था।बस घर गाँव में गिल्ली डंडा, कंचों का खेल गुच्ची गुच्ची पाड़ा , गेंद तड़ी तथा गेंद के अन्य खेल खेलता रहता था। मेरे सभी घर वाले : मेरे पूज्य बाबा स्व.श्री तोताराम जी, पूज्य पिताजी स्व.श्री मौहर सिंहजी बहुत चिंतित रहते कि यह पढ़ने नहीं जाता।मेरे पढ़ने न जाने की गाँव भर में चर्चाएँ होने लगीं कि भगवत स्वरूप पढ़ने क्यों नहीं जाता।
           एक दिन मेरे गाँव के ऐसे बच्चे जो दूसरी तीसरी चौथी कक्षा के विद्यार्थी थे , घर पर आए और मुझे बड़े ही प्यार से समझाया कि भगवत स्वरूप स्कूल में चला कर , वहाँ लड्डू मिलते हैं। पढ़ाई भी होती है। लड्डुओं का प्रलोभन मुझे स्कूल जाने की प्रेरणा बना , और भला हो मेरे उन सब सहयोगियों का जिनकी पवित्र प्रेरणा से मेरा स्कूल में प्रवेश होना सुनिश्चित हुआ। 
             यह बात सन 1959 ई.की है। दो चार दिन बाल मित्रों के साथ स्कूल जाने के बाद बच्चों ने बाबा जी और पिताजी से मेरा नाम लिखाने की बात कहीं तो मेरे बाबा मुझे जुलाई 1959 के किसी दिन मेरा प्रवेश कराने के लिए स्कूल में पहुँचे। उस समय मेरी उम्र लगभग सात वर्ष की रही होगी।मेरी उम्र का अंदाजा करके जुलाई की ही तिथि मेरे बाबा जी ने अंकित कर दी। इसीलिए पहले के लोगों की जन्मतिथियाँ जुलाई माह की होती हैं।यह तो बाद में पता चला कि मेरा जन्म पौष माह की अमावस्या की अर्द्ध रात्रि का है। 
          अब नाम तो लिखा ही जा चुका था। उस समय मेरी वास्तविक उम्र भी सात वर्ष थी। अब पट्टी बस्ता , कलम बुदका,एक किताब ,जिसमें हिंदी गणित सभी हुआ करते थे ,खड़िया , काँच का कड़ानुमा हरा हरा मोटा घोंटा (पट्टी को चमकाने के लिए)एक थैले में लटकाकर स्कूल जाने का क्रम शुरू हो गया। मेरे साथी गाँव के चार छः बच्चे नित्य ही मुझे अपने साथ स्कूल ले जाने लगे।उन्हें ये भय था कि कहीं मैं बाद में पढ़ने जाऊँ ही नहीं! इसलिए वे सब अपना कर्तव्य समझकर स्कूल जाते समय घर से मुझे अपने साथ ले जाना नहीं भूलते। मैं आज भी अपने उन साथियों का कृतज्ञ हूँ , जिनकी प्रेरणा और लगन से मुझे विद्यालय जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 
               यह तो बताना मैं भूल ही गया कि मेरे बस्ते में अध्ययन की सामग्री के साथ -साथ और क्या होता था। साथ में एक कपड़े में मेरी माँ मेरे लिए दोपहर का भोजन भी बाँध कर रख देती थीं।जिसे पढ़ाई के समय कोठी के हॉल में रखे श्याम पटों के बीच में छिपा कर रख देते थे। जो कभी -कभी कुत्तों की घ्राणशक्ति से पहचाने जाकर उनका लंच बन जाते थे।
           अब    तो मुझे पढ़ाई अच्छी लगने लगी थी। मेरे उस बेसिक स्कूल में मेरे प्रथम गुरु पंडित विद्या राम शर्मा जी थे, जिनके साथ पूज्य वर मुंशी जी श्री अजंट सिंह जी अध्यापन कार्य करते थे।पंडित जी अपने गाँव टर्रकपुर से और मुंशी जी अपने गाँव अगरपुर से साइकिलों से पढ़ाने आते थे। दोनों ही शिक्षक बहुत लगन और परिश्रम से हमें पढ़ाते थे। कुछ समय बाद पंडित जी के अस्वस्थ हो जाने पर सारे स्कूल का भार मुंशी जी पर ही आ गया, जो सभी पांचों कक्षाओं को अकेले ही पढ़ाते थे। उस समय मैं कक्षा 3 का विद्यार्थी था। मई के महीने में होने वाली लिखित परीक्षा के बाद कुछ मौखिक प्रश्न भी पूँछे जाते थे। मुझे आज भी याद है कि मुंशी जी ने मुझे पूछा कितने नौ उन्तालीस? मैंने झट से खड़ा हुआ और फट से उत्तर दिया कि बीस नौ उन्तालीस ।मुंशी जी के मुख से अनायास ही निकला हत्त ,तीस नौ उन्तालीस होते हैं ।
          एक बार मेरी किसी गलती पर मुंशी जी ने मुझे बहुत पीटा था। लेकिन घर पर बताने के बावजूद मेरे घर से आजकल की तरह कोई मेरी सिफ़ारिश लेकर स्कूल नहीं गया। चौथी कक्षा में आते आते मैंने हिंदी में कविताएं लिखना आरम्भ कर दिया था। 
              रात को मेरे पूज्य पिताजी मुझे गिनती पहाड़े याद कराते थे। कभी- कभी गुस्सा आने पर गाल पर चपत भी लगाते थे । उन्हें गिनती के साथ -साथ 40 तक पहाड़े, अद्धा, पौवा , सवैया , पौना के पहाड़े , मन ,सेर , छटाँक , गज ,फुट, इंच, बीघा , बिस्वा, विश्वान्सी,तोला , माशा ,रत्ती मुँह जबानी याद थे । उन्हें पढ़ाने के लिए किसी पुस्तकीय सहायता की आवश्यकता नहीं थी। यद्यपि वह कक्षा 4 पास मात्र एक साधारण कृषक थें।मेरे बाबा जी के स्वतंत्रता आंदोलन में राष्ट्रपिता गांधी जी के साथ चले जाने और बार बार की जेल यात्राओं के कारण वे अधिक पढ़ नहीं सके थे।लेकिन उन्होंने मेरे पूज्य चाचाजी डॉ. सी एल राजपूत जी को अपनी मेहनत से पढ़ाकर दो विषय में एम ए और मनोविज्ञान में पी एच डी कराया। चाचा जी 1995 में आगरा कालेज आगरा से मनिविज्ञान के प्रोफ़ेसर पद से सेवा निवृत हुए हैं। 
            इसी क्रम में अपनी प्रारंभिक शिक्षा की एक चर्चा भी आवश्यक समझता हूँ। घर की जिस कोठरी में हम मिट्टी के तेल की कुप्पी जलाकर सोते थे। उसमें कोई भी खिड़की नहीं थी। रात को पिताजी पढ़ाते थे। एक दिन मैं स्वप्न में याद कर रहा था कि सिंधु माने समुद्र , सिंधु माने समुद्र, सिंधु माने समुद्र। यही रट लगाए हुए था। सुबह पिताजी और माँ ने बताया कि भगवत स्वरूप रात में मायने याद कर रहा था कि सिंधु माने समुद्र, बार बार दोहराए जा रहा था। वे हंस रहे थे। मुझे भी याद आ गया कि मैं ऐसा कर रहा था। 
        इस प्रकार मेरी प्रारंभिक शिक्षा का श्रीगणेश हुआ। तब कोई यूनिफार्म भी नहीं थी। वही कमीज और पट्टे का धारीदार पाजामा और कपड़े के बाटा के जूते।ये याद नहीं कि कभी स्कूल जाने से नागा की हो। जब निरंतरता की गाड़ी चल पड़ी तो चल ही पड़ी । शुरू- शुरू में मासिक शुल्क केवल एक आना लगता था। जो शायद जूनियर कक्षाओं में पाँच आने हो गया था। वह जमाना भी क्या जमाना था,  जिसकी आज केवल मधुर स्मृतियां ही शेष हैं। अतीत कभी लौटकर नहीं आता।
 💐शुभमस्तु !
 13.06.2020 ◆7.15 पूर्वाह्न।

हुंकार [ गीत ]


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✍ शब्दकार 
🏹 डॉ. भगवत स्वरूप *'शुभम'
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हुंकार से फुंकार से काँपा गगन।
होगा दमन !   होगा दमन!!

ये    चीन   की   टेढ़ी  नज़र,
बजने   लगा  अपना  बज़र,
पर्वत शिखर   का हर शजर,
गाने     लगा   हुंकार   भर,
होगा शमन !   होगा शमन!!
होगा  दमन !   होगा दमन!!

हम    वीर    हैं  सोते  नहीं,
भयग्रस्त    हो   रोते   नहीं,
हम    शल्य  भी बोते नहीं,
हुंकार      ऐसी    है  प्रखर,
तू   लौट जा  पीछे , न मर!
होगा  दमन   ! होगा दमन!!

जो   आँख    तू   टेढ़ी  करे,
हम  फोड़     दें   अंधी करें,
कटु   लाल   मिर्ची भी भरें,
हम   चाहते   दुश्मन    टरे,
क्यों    बढ़ रही है ये तपन?
होगा  दमन! होगा  दमन!!

हम      छेड़ते    पहले  नहीं,
फिर  छोड़ते   भी  हम नहीं,
छिप जाएगा  बिल  में कहीं,
अब आँख मत मिचका यहीं,
क्यों  काँपता  है  शीश तन!
होगा  दमन!  होगा दमन !!

सुन    बुद्ध    का   ये  देश है,
बुद्धत्व    का    तू   क्लेश है ,
खाना    जो   मुँह की शेष है,
हर    छद्म   तेरा     वेष    है,
पग पीछे  हटा  होगा शमन!
होगा दमन !   होगा  दमन!!

💐 शुभमस्तु !

11.06.2020 ◆6.15 अप.

ग़ज़ल


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✍ शब्दकार ©
☘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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दूषित      न कर इस गंगा नदी को।
बहाती जो अमृत नमन जिंदगी को।

सूखे     पहाड़ों     से जो बह रही हैं,
भुला मत प्रकृति की परम वंदगी को।

ये  झरने ये नदियाँ ये झीलें हजारों,
हैं     जीवंत कविता औ'शायरी को।

अभागा     न बन मत बर्वाद कर तू,
नमन कर हजारों इस सरज़मी को।

गाई    हैं   रब ने ये कविताएँ मंजुल,
गुनगुना  के सुर दे इस गायकी को।

'शुभम'     जान नेमत प्रभु की अनेकों,
भुला मत प्रकृति से मिली रौशनी को।

💐 शुभमस्तु !

11.06.2020 ◆4.30 अप.

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...