सोमवार, 27 मई 2024

रोज सुबह होते ही [ व्यंग्य ]

 243/2024

           

©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


रोज सुबह होते ही वे अपने घर से बाहर निकल जाती हैं।किस -किसके दरवाजे को वे नहीं खटखटाती हैं? कभी इस दर पर कभी उस दर पर।चलती चली जाती हैं वे हर घर - घर।कोई काम हो ,ऐसा कुछ भी नहीं।कुछ माँगना- देना हो ऐसा भी कुछ नहीं।फिर भी बिना माँगे  वे बहुत कुछ दे आती हैं और जो चाहती हैं वह बिना दिए ले आती हैं।वह कोई भिखारिन भी नहीं हैं।पर सौ दो सौ हजार में वे एक यहीं हैं। वस्तुतः उनके लेन-देन की कोई सीमा नहीं है।

आप कहेंगे कि ये क्या पहेली बुझा रहे हैं। ये क्या माजरा है जो इतने घुमा - फिरा कर बता रहे हैं।जी हाँ, वह एक चलती फिरती पहेली ही हैं।ज्यादा तो कुछ नहीं वह चालीस साला नवेली ही हैं।उनका दिन भर यही काम है। लगाने -बुझाने में उनका मोहल्ले में बड़ा नाम है। ऐसा भी नहीं कि उन जैसी कोई हँसी हस्ती नहीं हैं। आप शोध करके के देखें तो वे हर कहीं हैं।ये वे हैं जिन्हें किसी की खुशी,शादी, ब्याह,जन्म,जन्मदिन, नवगृहनिर्माण आदि कुछ भी सहन नहीं हैं।यदि हो जाये कहीं गमी तो सारी  खुशियाँ यहीं हैं।भीतर -भीतर उनका दिल बल्लियों उछलता है।बाहर से दिखावटी आँसू का सैलाब उमड़ता है। उनके चरित्र की महिमा विधाता ब्रह्मा भी नहीं जानते। ऐसी 'महानारियों' की संरचना वे कचरे से मानते। जैसे गुबरैले को गोबर की महक और स्वाद भाता है ,वैसे ही इनको कचरा फैलाना सुहाता है।

चुगलखोरी इनका प्रिय व्यसन है।चुगलखोरी के लिए ही तो इनके दिल में मची रहती सन -सन है।यहाँ की वहाँ और वहाँ की यहाँ इनका प्रिय शगल (हॉबी,कामधंधा)है।इसके बिना नहीं कटता एक भी पल है।पड़ती नहीं इनके दिल में एक घड़ी की भी कल है।इनके लिए यह काम बड़ा ही सरल है।भले ही वह भद्र समाज के लिए गरल है।पर क्या कीजिए गिरगिट का भी ! वह कभी स्वेच्छा से रंग नहीं बदलता।वह तो प्रकृति प्रदत्त गुण है कि चाहकर भी नहीं सँभलता।इसी तरह वे 'महादेवी' भी क्या करें,उन्हें विधाता ने भेजा ही इस काम के लिए है:'

जो आया जेहि काज सों तासों और न होय।'

परमात्मा का समाज के ऊपर बड़ा ही उपकार है कि वे पढ़ी हैं न लिखी। पर अच्छे -अच्छे पढ़े लिखों के कान अवश्य काटना चाहती हैं।यह अलग बात है कि यह काम इतना आसान भी नहीं है। कि वे जो कह दें सब सही है ! सोचती तो हैं कि वे किसी के भी कान न छोड़ें ।सबको नकटा बनाकर ही पानी पिएं। पर ऐसा हो नहीं पाता है।उनकी बातों में उनका अधकचरा हसबैंड ही आता है। वह तो उनमें सौ फीसद विश्वास जतलाता है।नहीं यदि कभी आए ,तो कस-कस कर थप्पड़ भी खाए।ऐसा एक बार नहीं, अनेक बार इतिहास बनाया गया है। और कई बार उसे दोहराया भी गया है। उसका यह 'चंडी रूप' कई जोड़ा आँखों से देखा गया है,और कई जोड़ा कानों से सुना भी गया है।

एक विशेष बात यह भी है कि इस प्रकार की 'महानारियाँ' यहीं पर हों,या दो चार हों। ऐसे महान चरित्र तथाकथित  'सुशिक्षिताओं' और कवयित्रियों में भी मिले हैं।जो किसी अन्य कवि की ख्याति से क्षुब्ध ही होती हैं।वे या तो उन्हें उपेक्षित करती हैं अथवा जान बूझकर टाँग घसीटने का काम करने में प्रवीणा हो जाती हैं।पता चला है कि कुछ सहित्यिक मंचों पर वे अपनी रूप शोभा बढ़ा रही हैं और अपने चहेते -चहेतियों को सिर चढ़ा रहीं हैं। अब क्या करिए ,अपवाद कहाँ नहीं हैं ! कभी तुलसी बाबा यह बहुत पहले कह गए हैं :

'नारि न  मोह नारि के रूपा।' 

क्यों मानहिं वे पुरुष अनूपा।।

शुभमस्तु !

26.05.2024● 2.00प०मा०

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...