गुरुवार, 23 मई 2024

परहित [ कुंडलिया ]

 229/2024

                     

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

                    

                              -1-

बातें   परहित  की   करें,  भरते अपने   पेट।

नेता  अपने   देश    के,  बना  देश को   चेट।।

बना   देश   को   चेट, भरी  खुदगर्जी   सारी।

सत   पथ  का  आखेट,  यही उनकी बीमारी।।

'शुभम्' सत्य  यह  तथ्य,अलग हैं दिन से रातें।

मुख में  बसा   असत्य,झूठ सब इनकी  बातें।।


                              -2-

अपना -  अपना   पेट  तो,  भर  लेते हैं     श्वान।

जीता   परहित   के लिए, यही मनुज  पहचान।।

यही   मनुज   पहचान,  परिग्रह  से है    बचना।

सुखमय   हो   संसार,  श्रेष्ठ   हो  भू की   रचना।।

देने  से   शुभ   दान, 'शुभम्'   शुचि देखे  सपना।

सबका   हो  कल्याण,स्वर्ग सम घर हो   अपना।।


                             -3-

करनी    परहित  की भली, मिले शांति   संतोष।

तन -  मन   अपने  वचन से, करें न कोई   रोष।।

करें   न   कोई    रोष,   पेड़    फल लकड़ी   देते।

देकर   शीतल   छाँव,  कष्ट   तन का हर     लेते।।

'शुभम्'  पत्र  दल   मूल, सभी  की महिमा  बरनी।

सब   परहित  के  काज,रखें पावन निज  करनी।।


                           -4-

कहते    सब  नदिया    उसे, आजीवन दे    नीर।

प्यास  बुझाए  जीव की, हरती  तन- मन  पीर।।

हरती   तन - मन  पीर, धरा का सिंचन   करती।

खिलते   तरु  पर  फूल, फलों से झोली  भरती।।

'शुभम्'   नदी  का  दान,सुखों के सागर   बहते।

धरती  परहित  रूप ,   किंतु जन नदिया  कहते।।


                           -5-

मानव  ने  समझा  नहीं,परहित का कुछ  मोल।

स्वार्थलिप्त  जीता  रहा, अशुभ  कर्म  अनतोल।।

अशुभ कर्म  अनतोल,किया करता नर   जीभर।

करे   वचन  में   झोल, नशे   की हाला   पीकर।।

'शुभम्' न  लेता  सीख,बना है निशिदिन दानव।

सूरज  निशिकर नीर, सिखाते  नित  ही  मानव।।


शुभमस्तु !

17.05.2024●7.00आ०मा०

                       ●●●

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...