गुरुवार, 23 मई 2024

धरती धारक धर्म की [ दोहा ]

233/2024

         

          [नीर,नदी,धरती,बिवाई,ताल]

                       सब में एक

निर्मल   गंगा   में  बहे, अविरल शीतल  नीर।

बुझे  पिपासा जीव की,हो नहान सरि -  तीर।।

मिलन   तुम्हारा  शोभने, उर को शीतल नीर।

महक उठा सद्गन्ध-सा,कण-कण बना  उशीर।।


नदी   नहाई     धूप  में,  निर्मल करती   नीर।

ताप  धरा  का  हर  रही,तृण भर नहीं अधीर।।

नदी-नदी  सब  ही  कहें, देती वह दिन  - रात।

कलकल कर किल्लोल कर,करती है ज्यों बात।।


पाले    अपने    क्रोड़   में,धरती माँ   संसार।

मौन   रहे  सह    कष्ट  भी, देती  दान अपार।।

धरती धारक  धर्म  की, तल में मात्र  सुधर्म।

सबको ही  सुखदायिनी,  करे  नेक  सत्कर्म।।


प्यासी  धरती   रो  रही, फटीं बिवाई पाँव।

जा  खेतों  में  देख  लो,बिलख   रहे हैं  गाँव।

फ़टे बिवाई पाँव  की,  सबको होती   पीर।

नहीं   और  की  जानते,  बड़े -बड़े रणवीर।।


भीषण  तप्त  निदाघ  है,सूख  गए  हैं  ताल ।

जीव - जंतु  प्यासे  सभी,बिगड़ गया है  हाल।।

पड़ीं  दरारें  ताल में,  तड़प मरीं जल - मीन।

दादुर  तल में  जा  घुसे, बजा  चैन की   बीन।।


                 एक में सब

नदी  ताल  धरती सभी,धरें न मन  में  धीर।

फटी  बिवाई  पाँव में, वांछित निर्मल  नीर।।


शुभमस्तु !

22.05.2024● 8.00 आ०मा०

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