221/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
टूटकर
जुड़ने की गाँठें
पूर्ववत होतीं नहीं।
दूरियाँ
बनती दिलों में
जब विषमता का जहर,
आँच - सा जलता
यकायक
रात - दिन आठों प्रहर।
आदमी ही
आदमी का
शत्रु बनकर आ खड़ा।
स्वार्थ आड़े
आ रहे हैं
स्वार्थ की सत्ता सदा,
हो रहे हैं
गैर अपने
हाथ में खंजर गदा।
'शुभम्' शुभता
जानता कब
पंक में सिर तक गड़ा।
शुभमस्तु !
09.05.2024●3.45 प०मा०
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