214/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
भारी ईंटें
उठा शीश पर
श्रमरत है मजदूर।
तन पर मैले
वसन धरे वह
जा भट्टे के बीच।
रखता बोझ
ईंट का भारी
देह स्वेद से सीच।।
पत्नी बालक
निर्धन भूखे
हुआ बहुत मजबूर।
दिन भर करता
काम थकित हो
मिले न इतना दाम।
मुश्किल से ही
मिल पाता है
रात्रि -शयन आराम।।
जुट पाता
भी नहीं अन्न जल
परिजन को भरपूर।
शोषण करते
पूँजीपति क्यों
बेबस हैं लाचार।
देह न देती
साथ काम का
पड़ जाते बीमार।।
'शुभम्' राष्ट्र
उनका सीमित है
सब खुशियों से दूर।
शुभमस्तु !
07.05.2024●8.15आ०मा०
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