गुरुवार, 30 मई 2024

तपे नौतपा ग्रीष्म [ दोहा ]

 248/2024

              

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


लाज करें तिय जेठ की,मुख अवगुंठन ढाँप।

लगे    नौतपा  आग  के,बरस  रहे  हैं साँप।।

लगें  थपेड़े   आग    के , मुरझाए  दो गाल।

आँख  मिलाए कौन अब, सूरज से तत्काल।।


धरती  पर  पड़ते  नहीं, बिना उपानह  पाँव।

नीम  तले  की छाँव भी,  माँग रही है छाँव।।

चैन   मिले  घर   में   नहीं, ढूँढ़ें  बाहर छाँव।

ढोर  लिए  अपने सभी, वट  तरु नीचे गाँव।।


अवा  सरिस  धरती हुई,तवा  सदृश है रेत।

उठें  बगूले  वात   के,तप करते सब खेत।।

बिस्तर  चादर  सब तपें,तपें आग-सी देह।

दूर - दूर तक  है  नहीं,  बरसे  नभ से मेह।।


क्षिति नभ पावक तत्त्व त्रय,चौथा चटुल समीर।

पंचम  जल भी खौलता, तापित सभी अधीर।।

बिना  तपे   नव ताप में,  होती  धरा न   शुद्ध।

ज्ञान  तभी  मिलता  सही, कहते सत्य प्रबुद्ध।।


षड ऋतुओं में ग्रीष्म ही,शोधक हैं दो मास।

कीट आदि सब नष्ट हों, दृढ़ है यह विश्वास।।

तपसी  ज्ञानी  तप  करें, तप  से ज्ञानी  बुद्ध।

धरती  तपती  मास दो, रविकर से कर युद्ध।।


ऋतु है भीष्म निदाघ की,तप का ही आधार।

'शुभम्' मनुज जितना तपे,आता पूर्ण निखार।।


शुभमस्तु !


29.05.2024●6.30आ०मा०

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