रविवार, 5 मई 2024

सच को कोई नहीं जानता [ नवगीत ]

 206/2024

      

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सबके ही

कयास अपने हैं

सच को कोई नहीं  जानता।


अलग - अलग

स्वर हर ढपली के

कोई वक्ता है भावी का।

ताला लिए

फिर रहा कोई

उसे खोलने की चाबी का।।


दावों की

आँधी चलती है

कहता मुख से सत्य मानता।


हम ही सत्ता 

के धारक हैं

सिर के ऊपर गुजरा पानी।

कानों से है

बहरा  पूरा

गढ़-गढ़ कहता नई कहानी।।


भूलभुलैया में

है जनता

डोर कुए पर बैठ तानता।


चैनल और

मीडिया वाले

सबके हैं अंदाज़ निराले।

रस ले लेकर

 हैं फ़रमाते 

'सुसमाचार' मसाले वाले।।


पत्रकार टोही

फिरते हैं 

लगती केवल भूँक श्वानता।


शुभमस्तु !


04.05.2024●9.00प०मा०

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