202/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
ढूँढ़ - ढूँढ़ कर
कमियाँ लाते
होती है कीचड़ की होली।
अपना दामन
धुला दूध -सा
कहें दूसरे का है मैला।
मुर्दे गढ़े
उखाड़े जाते
सिद्ध करें उनको गुबरैला।।
चैनल बिके
खबर मनचाही
बिखरा रही लाल रँग रोली।
जो वे कहें
वही छपता है
भोंपू का स्वर एक सभी का।
गोबर पर
है दूध-मलाई
नैतिकता का मरण कभी का।।
भाँग पड़ी है
कूप - कूप में
खाएँ सभी भंग की गोली।
जो खोले मुख
थोड़ा-सा भी
अगले ही पल बंद मिलेगा।
पट्टा बदले
एक रात में
एक इंच भी नहीं हिलेगा।।
जैसे भी हो
साम दाम या
दंड भेद की मीठी बोली।
शुभमस्तु !
04.05.2024● 8.00आ०मा०
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