218/2024
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
समय एक सा
कभी न रहता
कभी शाख पर कभी धरा पर।
इतराना क्या
सुमन चमन के
दो दिन की बहार है तेरी।
फिर मुरझाना
तुझे पड़ेगा
दुर्लभ मंजिल राह अँधेरी।।
रह जाने हैं
धरे यहीं पर
सत्ता सत्तासन होते क्षर।
अंबर में
उड़ते पंछी के
पंख साथ कब तक दे पाते।
शक्तिहीन
होते हैं डैने
कट कर गिरते क्षय हो जाते।।
देख सामने
दृष्टि घुमाकर
पड़ता है सबको जीकर मर।
कटु वाणी की
चला सुनामी
तूने सदा डुबाया खुद को।
घुट-घुट कर
क्यों अश्रु बहाए
भूल गया क्यों अपने रब को।।
'शुभम्' स्वार्थ में
डूबा मानव
बना बनाया पाया है घर।
शुभमस्तु !
09.05.2024●1.30 प०मा०
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