200/2024
© शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
घंटे शंख
बंद हैं सारे
रथ के घोड़े थके हुए हैं।
सन्नाटा पसरा
घर भर में
कोई कुछ भी नहीं बोलता।
साँय - साँय
चलती हैं लूएँ
गुपचुप धीमा जहर घोलता।।
पड़े गाल पर
गरम थपेड़े
आम पिलपिले पके हुए हैं।
एक स्वयंभू
ईश्वर बनकर
निर्मित की है अपनी सत्ता।
मेरी इच्छा
बिना न हिलना
किसी पेड़ का कोई पत्ता।।
अपनों का ही
रक्त पिया है
हाथ अभी तक रँगे हुए हैं।
ये न समझना
पता नहीं कुछ
हवा कौन सी बाहर बहती।
सिर के ऊपर
बहता पानी
सरिता नई कहानी कहती।।
ताश महल
के पत्ते सारे
अवगुंठन में ढँके हुए हैं।
शुभमस्तु !
03.05.2024●3.15प०मा०
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