सोमवार, 31 मार्च 2025

सोए साँप जगाने का ही [नवगीत]

 185/2025

      

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सोए साँप जगाने का ही

राजनीति है नाम।


सत्तासन से दूर खड़े हो

कौन तुम्हें पहचाने

सत्तासन पर अड़े हुए जो

उनको ही सब माने

आग लगाते रहो देश में

बचा देह का चाम।


राजनीति को जिंदा रखना

तुमको बहुत जरूरी

जो मन आए वही कहो तुम

जनता से रख दूरी

नहीं कभी था सेतुबंध वह

नहीं हुए प्रभु राम।


रक्त नहीं है आर्य पिता का

पता न जननी कौन

देश विरोधी वाणी बोलो

घावों पर   दो नौंन

राजनीति के चूल्हे सुलगा

तुम्हें कमाने दाम।


शुभमस्तु !


30.03.2025● 11.45आ०मा०

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आज के युग का मैं भगवान [नवगीत]

 184/2025

  

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


समझ ले बात  सही  इंसान

आज के युग का मैं भगवान।


गर्वोन्नत हो मस्तक तेरा

खिंचवा फोटो संग

शान दिखाए औरों को तू

चढ़ा रखी ज्यों भंग

मैंने तुझे न अपना समझा

तू करता गुणगान।


भले पिघल जाए मंदिर का

पत्थर का भगवान

मुझको समझ न लेना सस्ता

इतना भी आसान

मेरे यहाँ सभी तुलते हैं

बीस पंसेरी धान।


तेरे जैसे कितने आते

लेकर छायाकार

संग खड़े खिंचवाते फोटो

दे कर  में उपहार

मुझे आम का ही रस लेना

करता मैं अभिमान।


30.03.2025●10.45 आ०मा०

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सत्कर्मों की साधना [दोहा]

 183/2025

              

[साधना,उपासना,आराधना,प्रार्थना,याचना ]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                सब में एक

सत्कर्मों     की   साधना,  सदा साधती    श्रेय।

मिले  शुभद  परिणाम  ही, पूर्ण करे हर   ध्येय।।

करे  कठिन  जो साधना, गहे उच्च  वह लक्ष्य।

सत्त्व  साध  पथ  में बढ़े, भखे न भक्ष्य-अभक्ष्य।।


प्रभु   की   करें  उपासना, ध्यान रहे   एकाग्र।

मन में शांति निवास हो,क्षणिक न हो मन व्यग्र।।

सभी   उपासक  एक से, कभी न होते   मित्र।

उपासना   के   रंग   भी,पृथक छिड़कते  इत्र।।


करता फल की  कामना,फल पर उसका ध्यान।

कैसे   हो    आराधना ,उड़े  लक्ष्य  पर   ज्ञान।।

श्रेष्ठ     वही   आराधना,  जहाँ  समर्पण   भाव।

प्रभु   चरणों  में   सौंपिए, सहज हृदय  का चाव।।


मन - मंदिर    की  प्रार्थना, करें हृदय   से  मौन।

और  न  कोई    जानता, जतलाए भी    कौन।।

द्रवित   काष्ठ   होता नहीं, करे प्रार्थना   भक्त।

पाहन भी   पिघले  वहाँ, जहाँ  हृदय    अनुरक्त।।


दाता     केवल   ईश    है , याचक  सब   संसार।

लक्ष्य    याचना   का  वही, देता  हर उपहार।।

द्वार - द्वार   जाकर कभी, बनें न याचक    आप।

करें   नहीं  वह  याचना,  बन जाए  अभिशाप।।

      

                 एक में सब

आराधना     उपासना,  करें साधना    नित्य।

सफल प्रार्थना   याचना, का  हो  तब औचित्य।।

शुभमस्तु !


29.03.2025●6.00प०मा०

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गुरुवार, 27 मार्च 2025

अपराध [ कुण्डलिया ]

 182/2025

        

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                           -1-

करता  है  जो जानकर,जीवन में अपराध।

क्षम्य  नहीं  होता कभी,दंड योग्य निर्बाध।।

दंड    योग्य    निर्बाध,  दंड    देते दंडालय।

मिले कर्म का स्वाद,बुरे का यही फलाशय।।

'शुभम्' बुद्धि से सोच,होश में पर धन हरता।

लेता जो उत्कोच, कर्म अनुचित वह करता।।


                         -2-

अपने  जैसा   जानिए,  सबको  ही  हे  मीत।

नहीं  प्रताड़ित  कीजिए, होता गलत प्रतीत।

होता  गलत   प्रतीत,  यही  अपराध बुरा है।

लगता  अपनी   पीठ ,  वेदना  मूल  छुरा  है।।

'शुभम्' बिना शुभ  काम,  न देखे ऊँचे सपने।

सबमें   रहते  राम, समझ सबको ही  अपने।।


                         -3-

मानव दिखते एक से,बाहर  से अति भद्र।

सत्कर्मों  से  ही बनें,दिव्य करे जग कद्र।

दिव्य  करे  जग कद्र,करें अपराध हजारों।

रहते   काराधीन,   दंड   भुगतें युग चारों।।

'शुभम्' मनुज की देह, किंतु वे होते दानव।

कहीं न उनका गेह, सदा अपराधी मानव।।


                           -4-

चोरी करें  छिनैतियाँ , नर-नारी व्यभिचार।

गबन मिलावट नित्य ही,हैं अपराध अपार।।

हैं अपराध  अपार,झूठ भी उचित न होता।

जल में पय की धार,लीद में धनिया रोता।।

'शुभम्' सदा ही ठगी,जा  रही जनता भोरी।

लाखों चोर  लबार, करें चरितों की चोरी।।


                           -5-

नेता    हो    या  संत के , वसनों में यह   रोग।

जगत व्याप्त जन मात्र में,लगें बड़े अभियोग।।

लगें    बड़े   अभियोग,  बनें अपराध  भयंकर।

पुजते   जनता    मध्य,  बने   वे भोले   शंकर।।

'शुभम्'  न्याय के द्वार, खुले सबको जो  लेता।

शोषण   करके  देश, भले  हो रँगिया   नेता।।


शुभमस्तु !


27.03.2025●8.00प०मा०

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अपने को ही बदलो [ नवगीत ]

 181/2025

       


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सबको नहीं बदलना संभव

अपने को ही  बदलो।


अच्छा दिखता नहीं कहीं भी

मीन मेख ही देखो

अपने को ही थोपो सब में

बिंब निजी आरेखो

मन में बिठा रखा जो कुछ भी

उसको ही तो उगलो।


माना पहलवान तुम भारी

क्यों हमसे टकराओ

अपने गीत गा रहे हैं हम

तुम अपने ही गाओ

क्यों हाथी से चूहा जूझे

दूर रहो जी सबलो!


जब पहाड़ के नीचे कोई

ऊँट कभी आ जाता

दाल भात का भाव खूब ही

पता उसे लग पाता

भाभी जी पर  गुस्सा भैया

हम पर यों क्यों उबलो!


27.03.2025●3.30प०मा०

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एक ही भगवान सबका [ अतुकांतिका ]

 180/2025

        

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


एक ही भगवान सबका

पर अलग इंसान,

आम तो बस आम

वीवीआईपी मेहमान

पिछले द्वार से दर्शन

मुद्रा की छुअन भरकम,

आदमी आदमी का भेद

व्यवस्था में बड़ा- सा छेद,

कुछ भी नहीं अन्याय

होती हो जहां अन्य आय!


अन्याय पर सब मौन

आँखों के समक्ष प्रत्यक्ष

प्रभु की सदा सम दृष्टि

धनिकों की अतुल धन वृष्टि

भक्ति के भूखे सदा भगवान

अन्यायी सदा इंसान,

खुला पिछला  द्वार

लगा धन का बड़ा अंबार,

यही है धर्म या सद्धर्म?

कचोटता नहीं क्यों मर्म!


कण-कण में राम निवास

मंदिरों में करें उपहास,

कहीं जब मिल सकें जब राम

वीवीआईपी का क्या काम?

लगा रसना पर जब हराम

राम ही आय के स्रोत अभिराम,

सेवादार का उदर स्थूल

वीवीआईपी का दृढ़ मूल,

उसको चाहिए बस दाम

जय जय राम सीताराम।


शुभमस्तु!

27.03.2025 ●1.30प०मा०

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ताक रहे हैं अवसर सारे [नवगीत]

 179/2025

      


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


ताक रहे हैं अवसर सारे

अवसरवादी चोर।


धुला दूध से एक नहीं है

जारी सबकी खोज

चोरी करें भरें घर अपने

करें राजसी भोज

आय ऊपरी उत्तम सबसे

छपें नोट घनघोर।


बचा वहीं   ईमान अंश भर

मिला न अवसर नेक

जिसकी पोल खुली अंदर की

पुलिस करे अभिषेक

सोए थे वे रात चैन से

हुआ और कुछ भोर।


पिछला द्वार बंद कर बैठा

पंडा करे किलोल

जो देता है नोट हजारों 

देता है दर खोल 

गुपचुप कर दर्शन प्रभु जी के

तनिक नहीं कर शोर।


शुभमस्तु !


27.03.2025●7.45आ०मा०

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वीवीआईपी दर्शन होंगे [नवगीत]


178/2025

      


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


वीवीआईपी दर्शन होंगे

पीछे द्वार बना।


किसने कहा राम कण- कण में

बस मंदिर में  वास

भेंट करो जो नोट हजारों

रखना यह विश्वास

पाँच मिनट में पाओ दर्शन

बिलकुल नहीं मना।


यदि प्रसाद पाना है तुमको

कुछ पूजा के फूल

पाँच हजार चढ़ाओगे तो

मिले चरण की धूल

यों ही नहीं हमारा मोटा 

पेट फैट से घना।


आम लोग तो धक्के खाएँ

अलग सभी के द्वार

नेता अभिनेता सब आते

ले नोटों के हार

ठेकेदार धर्म के हैं हम

वक्ष इसी से तना।


जितना गुड़ डालोगे मीठी

उतनी होगी खीर

वरना रहो किनारे ताको

पाई जो तकदीर

नोटों का जब लगे हथौड़ा

फोड़े भाड़ चना।


शुभमस्तु!


27.03.2025●7.00आ०मा०

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[7:55 am, 27/3/2025] DR  BHAGWAT SWAROOP: 

वी आई पी दर्शन [ आलेख ]

 177/2025 

 

 ©लेखक 

डॉ.गवत स्वरूप 'शुभम्' 

 कहा जाता है कि भगवान कण- कण में होते हैं, किन्तु इन पंडे- पुजारियों और महंतों की इसी प्रकार एकाधिकार सरकार चलती रही तो भगवान केवल वी आई पियों के होकर रहेंगे। किसी आम आदमी या गरीब आदमियों से भगवान का कोई दूर का भी सम्बन्ध नहीं रहेगा।भगवान की दृष्टि में उनका हर भक्त समान है।उसके साथ जाति,वर्ग,धनी,निर्धन, छोटा- बड़ा,वर्ण आदि का कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए।किन्तु इन तथाकथित सेवादारों,पंडे और पुजारियों ने अपने आर्थिक लाभ के लिए काला धन कमाने के लिए विशिष्ट ,अति विशिष्ट, सामान्य आदि श्रेणियों का विभाजन किया हुआ है,जिसके अनुसार वे भगवान के दर्शन पर प्रतिबंध लगाए हुए हैं।

 इस प्रतिबंध के अंतर्गत एक भक्त तेरह -चौदह घंटों तक कतारों में खड़ा रहता है और उधर जो भक्त उन्हें पाँच सौ,एक हजार ,पाँच हजार के नोट चुपके -चुपके गहा देते हैं उन्हें अविलंब ही पिछले 'चोर दरवाजे' से दर्शन करा दिए जाते हैं। इसमें भी दर्शन लाभ की श्रेणियाँ बनी हुई हैं ।जैसे जो भक्त पाँच सौ रुपये अदा करता है ,उसे सामा न्यतः दर्शन लाभ मिलता है ;किन्तु एक हजार रुपये में वह उन्हें पूजा के फूल और प्रसाद भी देता है।इसी प्रकार आमद बढ़ने के साथ -साथ दर्शन लाभ का पुण्य भी बढ़ा दिया जाता है।हो सकता है कि दस बीस हजार मिलने पर भगवान को वीवीआई पी के घर ही भगवान को भेज दें।अब भगवान भक्त के वश में नहीं इन पंडे- पुजारियों और महंतों के अधीन हैं। वे चाहें तो दर्शन कराएँ और न चाहें तो कोई दर्शन लाभ नहीं ले सकता। 

 नेता,मंत्री, धनाढ्य, अधिकारी, फिल्मी क्षेत्र के लोग, हीरो हीरोइन, नाचानिये, बड़े- बड़े व्यवसायी, पूँजीपति इन मंदिरों के मठाधीशों के वी आई पी और वी वी आई पी हैं। जो यदि चाहें तो भगवान को मंदिर से बुलाकर अपने रंग महलों में ही सपरिवार दर्शन कर सकते हैं। यह एक छत्र एकाधिकार स्प्ष्ट करता है,कि भगवान धन के अधीन हैं।ये तथाकथित पंडे -पुजारी अपने हिसाब से उन्हें नाच नचा रहे हैं। उधर देव दर्शन का दूसरा पहलू यह भी है कि जिनकी जेब में घर वापसी के लिए टिकट के पैसे भी नहीं हैं ,उन्हें तेरह - चौदहों घण्टे भीड़ में सड़ा दिया जाता है।देश के सभी बड़े -बड़े मंदिरों की इस दुर्व्यवस्था को दूर करना तो दूर सरकारों और प्रशासन के पास इसके लिए सोचने का भी समय नहीं है। 

 जनता की गाढ़ी कमाई का ट्रकों सोना चाँदी, पैसा प्रतिदिन इन मंदिरों में आस्था के नाम पर चढ़ाया जा रहा है कि व्यवस्था को सही करने के लिए इनके पास समय ही नहीं है। यदि अंध विश्वास और दुर्व्यवस्था के विरुद्ध लेखनी उठती है ,तो उसे विरोधी और धर्म विरुद्ध घोषित करने में देर नहीं की जाती।कुछ भी कहिए मत,बस सहते रहिए। अपना और आम जनता का शोषण देखते रहिए। धर्म की व्यवस्था पर बोलना और लिखना धर्म विरुद्ध है। मुँह पर टेप लगाए हुए सब मौन स्वीकृति देते रहिए।कौन नहीं जानता कि देश के बड़े -बड़े मंदिरों में क्या हो रहा है; किन्तु कोई कहने सुनने वाला नहीं है। प्रशासन पंगु हो चुका है। गरीब का शोषण हो रहा है। क्या यही धर्म है? क्या यही भगवान के प्रति समुचित व्यवस्था है? इस स्तर पर हमारी न्याय व्यवस्था भी मूक बनी हुई सब कुछ खुली आँखों से देख रही है। यह रुग्ण मानवीय मानसिकता सर्वथा निंदनीय और परिमार्जनीय है। दुनिया अंतरिक्ष के नए -नए रहस्यों का उद्घाटन कर रही है और विश्वगुरु कब्रें खोदने में मस्त है। मजहब और धर्म की लड़ाई लड़ने से फुर्सत मिले तब न कुछ विचार करे। अंधेर नगरी चौपट्ट राजा वाली स्थिति हो रही है। किंतु कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं है। मंदिरों की इस रिश्वतखोरी की दुर्व्यवस्था को देश ने सहज स्वीकार कर लिया है। 


 शुभमस्तु !


 27.03.2025●5.00आ०मा० 


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जीव कुशल क्षेत्रज्ञ है [ दोहा ]

 176/2025

           

[खेत,माटी,रबी,फसल,खलिहान]


©शब्दकार

डर.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

         

                 सब में एक

जीव  कुशल क्षेत्रज्ञ  है,देह  मनुज की  खेत।

फल  कर्मों  के  चू रहे, पाप - पुण्य के  हेत।।

लिए    कलेवा  खेत में, करती नारी   गौन।

हर्षित सभी किसान हैं,विटप छाँव ही भौन।।


माटी जननी   जीव  की,  माटी में अवसान।

सोना- चाँदी भी वहीं, वही जगत की  खान।।

मत   माटी  को  निंदिए, माटी सर्जक  तत्त्व।

उड़े   पड़े  जब आँख  में,रुदन करे अस्तिव।।


चना  मटर  गोधूम से, रबी फसल  आबाद।

चूँ -चूँ -चूँ  चिड़ियाँ करें,विचर भरें मधु नाद।।

फसल रबी लहलह करे,कृषक करें आमोद।

भावी   के  सपने  दिखें, बैठ धरा की   गोद।।


कृषक फसल परिवार का,अति घनिष्ठ अनुबंध।

भारी   होती   पीठ  भी,सुदृढ़ वक्ष सह   कंध।।

ओले   शीत   तुषार से, नित भयभीत किसान।

फसल  सुरक्षित  खेत में,घर में अन्न   निधान।।


पकी   खेत  में बालियाँ, हर्षित सभी  किसान।

गठरी भरते  खेत से,   करें  कृषक खलिहान।।

लगा   ढेर  खलिहान  में,चिंतित है  परिवार।

गई   पोटली   गेह  में,  प्रमुदित   तुष्ट विहार।।

                एक में  सब

रबी फसल खलिहान से,आती है जब गेह।

मुदित   खेत   माटी सभी,नाच रहा है   नेह।।


शुभमस्तु !


26.03.2025● 8.15आ०मा०

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संचय [ दोहा ]

 175/2025

               


© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


संचय करना  पुण्य  का, सुधरेगा परलोक।

जीवन में  सुख शांति हो,चले राह बे रोक।।

संचय करना पाप का, नर जीवन का शाप।

बूँद -बूँद  कर  घट भरे,सदा मिलें बहु  ताप।।


धन  संचय   करते  सभी,निर्धन और   अमीर।

साथ न जाए बाल   भी,लिखा  यही तकदीर।।

उतना  ही  संचय  करें,  जितना हो अनिवार्य।

आगत को स्वागत मिले,सुगम चलें सब कार्य।।


संचय   में   जीवन  गया, भोग न पाया  बूँद।

बन    विवेक  का  अंध तू, रहा चक्षु दो मूँद।।

सीमा   संचय   की   नहीं,   भरे  हुए भंडार।

उड़ा  हंस परलोक को, करता नहीं   विचार।।


संचय  कर  भोगा नहीं, यदि धन को हे मीत।

व्यर्थ  भरे    भंडार    तू, भावी  वृथा अतीत।।

संचय कर प्रभु भक्ति का, सत्कर्मों का मित्र।

आसपास   सर्वत्र ही, महक उठे यश   इत्र।।


जो   आया   संसार    में,  संचय   में संलग्न।

किसके हित में जी रहा,सन्तति के हित मग्न।।

सुखी   पखेरू  हैं सभी, कण संचय से    दूर।

मानव  ही  जूझा  रहा,धन  के  हित मजबूर।।


कल का दाना आज क्यों,संचय कर हों व्यग्र।

पंख  खोल  सोएँ सभी,खग मानुस से  अग्र।।


शुभमस्तु !

25.03.2025● 9.00 प०मा०

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कोई कुछ क्यों बोले? [ व्यंग्य ]

 174/2025 


 ©व्यंग्यकार 

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

 कोई कुछ क्यों बोले? लगता है सबको साँप सूंघ गया है।साँप के सूँघने का ही इतना बड़ा असर है तो डँसने पर क्या होगा? सबने अपने- अपने साँप पाले हुए हैं।लेकिन वे अपने को डँसने को नहीं,दूसरों को डँसने के लिए ही हैं। कोई कुछ भी नहीं बोल पा रहा है। लगता है सबकी दुखती रग अचानक दब गई हैं। जो एक चीज का रहस्योद्घाटन 'उनमें' हुआ है;भय है कि कल उनकी चीज का भी न हो जाए ! तब क्या होगा ? इसलिए जो होना हो सो हो, चुप ही रहो। इसी में भलाई है। मैं न कहूँ तेरी ,तू न कहे मेरी।दुधारू काली भैंस पली हुई है, मत समझना इसे छेरी। 

 जहाँ -जहाँ आदमी है ,वहाँ -वहाँ 'वह' है। कर्म में,धर्म में,मर्म में,धन में, तन में, मन में, अमीर या निर्धन में,न्याय में अन्याय में,शादी या ब्याह में इस तरह व्याप्त है,जैसे कण - कण में ईश्वर। 'वह' तो खून में ऐसे प्रवहमान है ,जैसे आर बी सी या डब्लू बी सी। बात केवल अवसर की शुद्ध हवा की है, वह अनिवार्य है। 'अवसर की शुद्ध हवा' जिसे नहीं मिली ,बस वही 'उससे' निर्लिप्त है। यह 'वह' क्या है ?जिसे सब घृणा करते हैं , किन्तु चाहिए सबको। उचित ऑक्सीजन मिली नहीं कि 'वह' जाग्रत हुआ। सबको न्याय देने वाला भी जब उससे अछूता नहीं तो किसे दूध का धोया हुआ कहें?

 इस देश में कुछ क्षेत्र ऐसे हैं ,जिन पर 'उसकी' छाया का नाम तक लेना गुनाह है। मानो वे सीधे स्वर्ग से या सत लोक से अवतरित हुए हों। इसके विपरीत वास्तविकता यही है कि कोई- कोई आकंठ लीन है तो कहीं - कहीं छींटें ही पड़े हैं। अब मैं क्यों कहूँ कि कौन कितने पानी में हैं । देश में 'उसका' महाकुंभ चल रहा है जो महीने दो महीने का नहीं ;जीवन भर का है। पुण्यात्मा गोते लगा-लगा नहा रहे हैं। और पापी बैठे -बैठे लहरें गिन रहे हैं। अपने कर्म कोस रहे हैं। अपना -अपना भाग्य! 

 'यह' तो वह शुद्ध चीज है, जिसे कोई पत्नी पति के साथ करने से नहीं चूकती।जब खून में ही समाया हुआ है तो हर नर -नारी के जीवन का अहं तत्व भी है। बच्चों को इससे मुक्त माना जाता रहा है, किंतु शैशव पार करने के बाद जैसे ही वह आगे वह अपनी तिपहिया गाड़ी से उतरता है, सबके रंग में रँग जाता है। उसे इस रूप में देखकर कोई इसे अस्वाभाविक नहीं मानता,क्योंकि वह तो मानव मात्र के रक्त का अनिवार्य अंश है।पचास करोड़ के अनुदान में वस्तुतः बीस करोड़ ही साकार हो पाते हैं,शेष तीस करोड़ निराकार रूप में ही अन्तर्ध्यान हो लेते हैं। यही सच्ची ,अच्छी ,पक्की और बिना शक की 'सुव्यवस्था' है। बात फिर लौट फिर कर उसी बिंदु पर विश्राम पाती है, कि यह तो सबके एक समान खून के कणों का चमत्कार है।इस स्थल पर सभी होमो सेपियंस हैं, एक हैं, समान हैं।यदि भेद खुल गया तो तीर कमान हैं। देश को 'विश्व गुरू' होने के संभवतः इस महान गुण की भी परम अनिवार्यता होगी।

 इस महत्त्वपूर्ण 'चीज' के अनेक पर्याय हो सकते हैं।जैसे गबन, उत्कोच,कमीशन,मिलावट, अपहरण,चौर्य ,राहजनी,सुविधा शुल्क इत्यादि। अब तो आप सब कुछ जान और समझ गए होंगे कि 'वह' क्या चीज है ,जो यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ सर्वत्र समान है। टीवी और अखबारों में इसके चर्चे ही चर्चे हैं।पर प्रत्यक्ष रूप से सबने अपने मुँह पर टेप आबद्ध किया हुआ है। बात बस इतनी सी है कि उनके पेट का पानी भी खौल उठा है कि कब क्या हो जाए! शुभमस्तु ! 

 25.03.2025●1.15प०मा० ●●● [9:12 pm, 25/3/2025

खिल उठा ऋतुराज है [गीत]

 173/2025

        

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


लाल - लाल ओठों में

खिल उठा ऋतुराज है।


प्रेम- रंग साथ लिए

टेसू के फूल हैं

ओढ़ रखा वसन लाल

लग रहे दुकूल हैं

होली का रंग नया 

मिल उठा आज है।


लाल- लाल प्रेम रंग

कुदरत में खेलता

माँग में सिंदूर भरा

कौन नहीं झेलता

मुकुट धरा भाल लाल

हिल उठा  ताज है।


जागी नई चेतना

कामदेव की ध्वजा

यहाँ वहाँ उड़ रही

ज्यों वितान हो सजा

शरद शिशिर हेमंत ग्रीष्म 

 सर्व 'शुभम्' साज है।


शुभमस्तु!

25.03.2025●4.00आ०मा०

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उत्सव [चौपाई]

 172/2025

                   


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


उत्सव धर्मी     भारत    प्यारा।

उर-उछाह  उत्सव   का  गारा।।

जीवन   की    नीरसता  हरता।

उत्सव नित नवीन शुभ करता।।


हर्ष हृदय -  उल्लास   जहाँ   हो।

उत्सव का शुभ   कर्म  वहाँ  हो।।

बालक   वृद्ध   युवा    नर- नारी।

खिल जाती सबकी  उर- क्यारी।।


घोर    निराशा     मिटे   उदासी।

उत्सव  से  मानव    शुभ शासी।।

साल - साल भर   उत्सव  आते।

मिलजुल   कर नर - नारि मनाते।।


रंगों   का    शुभ   उत्सव   होली।

भर लाया   गुलाल   की   झोली।।

कार्तिक   मास    दिवाली   आती।

दीपमालिका     दिये     जलाती।।


भारत     हुआ    स्वतंत्र    हमारा।

उत्सव    वह     स्वाधीन  दुलारा।।

संविधान    का    उत्सव    आता।

शुभ छब्बीस    जनवरी    भाता।।


जन्म-  ब्याह   के   उत्सव   कितने।

नित्य    मनाते     तजते     फ़ितने।।

जीवन  का   हर   दिन   उत्सव हो।

करें वही जो सब शुभ नव-नव हो।।


उत्सव  से    गति    जीवन    लेता।

स्नेहन  जब    मिलता   जन चेता।।

आओ   जीवन  -  शुभता     लाएँ।

हर क्षण उत्सव     नित्य    मनाएँ।।


शुभमस्तु !


24.03.2025●8.45आ०मा०

                   ●●●

मधुऋतु मनभाई [ गीतिका ]


171/2025

                

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अग-जग में मधु ऋतु मनभाई।

बौरा     गई   हरित   अमराई।।


गेंदा    महक    रहा  क्यारी  में,

पाटल   ने    बगिया  महकाई।


अलि दल  झूम  रहे  डाली पर,

तितली की छवि  परित: छाई।


कुहू-  कुहू  कर  कोकिल कूके,

प्रोषितपतिका  चैन     न  पाई।


मोर   बाग  में   नर्तित  मद   में,

पिड़कुलिया प्रभु महिमा   गाई।


गाँव -गाँव  बजते  डफ   ढोलक,

लिए     मँजीरा     टोली  आई।


होली गीत गा    रहे   मिल- जुल,

गेहूँ       चना      मटर  शुभताई।


शुभमस्तु !


24.03.2025●6.00आ०मा०

                  ●●●


अग-जग में [ सजल ]

 170/2025

              

समांत        : आई

पदांत         :अपदांत

मात्राभार    :16.

मात्रा पतन  :शून्य।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अग-जग में मधु ऋतु मनभाई।

बौरा     गई   हरित   अमराई।।


गेंदा    महक    रहा  क्यारी  में।

पाटल   ने    बगिया  महकाई।।


अलि दल  झूम  रहे  डाली पर।

तितली की छवि  परित: छाई।।


कुहू-  कुहू  कर  कोकिल कूके।

प्रोषितपतिका  चैन     न  पाई।।


मोर   बाग  में   नर्तित  मद   में।

पिड़कुलिया प्रभु महिमा   गाई।।


गाँव -गाँव  बजते  डफ   ढोलक।

लिए     मँजीरा     टोली  आई।।


होली गीत गा    रहे   मिल- जुल।

गेहूँ       चना      मटर  शुभताई।।


शुभमस्तु !


24.03.2025●6.00आ०मा०

                  ●●●

रविवार, 23 मार्च 2025

ठप्पा [व्यंग्य]

 169/2025

               

©व्यंग्यकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


'ठप्पा' भला  कौन नहीं जानता। व्यक्ति की गरिमा गुरूर और गुरुत्व के लिए एक न एक ठप्पा लगना बहुत जरूरी है। बिना ठप्पे के आदमी , आदमी कहाँ! यहाँ सबको एक न एक ठप्पा तो चाहिए ही चाहिए। अब यह वांछित ठप्पा येन केन प्रकारेण मिले, पर मिलना अनिवार्य है।


 इस देश में ठप्पा अर्जित करने के अनेक साधन हैं।ठप्पा अर्जित करना किसी साधना से कम नहीं है।अब वह भेड़ाचरण संहिता पर आधृत जन चुनाव प्रक्रिया से हो अथवा नामित कर दिया जाये। आसमान से टूटकर सीधा हमारे पास आ जाए और बीच में किसी खजूर में न अटकने पाए। ठप्पा ऐसा लगना चाहिए , जो आजीवन हमारे देह से चिपका रहे। सोते हुए भी कोई आवाज दे : 'प्रधान जी!' तो हमारी नींद खुल जाए कि भला हमारे बराबर भला कौन है जो प्रधान जी कहला सके। पैंतीस साल प्रोफ़ेसर रहे व्यक्ति को गली- मोहल्ले वाले ,रिक्शे ठेले वाले मास् साब ! मास्साब !  कहते हैं ,पर सिपाही जी कभी दरोगा या दीवान जी की कुर्सी से नीचे नहीं उतरते। यही तो वे ठप्पे हैं ,जो एक बार लग जाएँ  तो फिर छुड़ाए नहीं छूटते।छुड़ाना भी कौन  चाहता है भला ! पैसे के बल पर बड़े-बड़े ठप्पे बना लिए जाते हैं। मिलावट खोर सेठ हो जाता है, फर्जी डिग्री बेचक महामहिम कुलाधिपति कहलवाता है।शिक्षा माफिया नकल करा-करा के डिग्रियों के बंडल बेचकर अरबों में खेलते हैं।

यों तो नाम कमाना आसान नहीं होता,किंतु शॉर्टकट रास्ते से यहाँ क्या कुछ हासिल नहीं किया जा रहा है ! बस गाड़ी की डिग्गी में नोटों के बोरे होने चाहिए। अब पॉकिट में या हाथों में नोटों की गड्डियों से काम नहीं चलता।यह देश प्राचीन काल से ही विश्व गुरु कहलाता आ रहा है। भले ही दुनिया अंतरिक्ष में खोज कर रही हो,पर यहाँ कब्रें खोदने से फुरसत नहीं है। दुनिया ऊपर जा रही है तो 'विश्व गुरू' अपना झंडा अंधेरों में फहरा रहा है। बात ठप्पों की है,तो शोध का एक ठप्पा यह भी तो कुछ कम नहीं। शायद कुछ नया मिल ही जाए।

आदमी के लिए काम करना अनिवार्य नहीं है।जब चाहिए एक ठप्पा ;  तो क्यों न ठप्पा -फैक्टरी ही खोल ली जाए !जहां तरह -तरह के ठप्पे बनाएँ और मनमाने दाम पर बेचे जाएं। इन नकली क्रीत ठप्पों के बल पर लोग शिक्षक, प्रोफेसर, प्रशिक्षक और न जाने क्या-क्या बन गए ! कंपाउंडर डॉक्टर बने हुए करोड़ों में खेल रहे हैं।वे भी नकली, डिग्री भी नकली। नकल और नकली की राजधानी बना हुआ 'विश्वगुरू' विदेश में नहीं तो अपनी गलियों में तो झंडे गाड़ ही रहा है। सब ठप्पों का चमत्कार है। ठप्पों की बहार है।ठप्पों से बहार है।ठप्पों से ही घर -बार गुलज़ार है। रैडीमेड ठप्पे मिल रहे हैं। जिसे चाहिए वह खरीद लें। मुफ्त में कुछ नहीं मिलता।

सहित्य के खेतों की ओर दृष्टिपात करें तो वहाँ भी स्वयं निर्मित स्वयंभू  ठप्पे मिल ही जाएँगे। किसी ने साठ साल की उम्र में युवा चर्चित कवि का ठप्पा लगा रखा है ,तो कोई अपने को वरिष्ठ कवि कहलवा रहा है।कोई श्रेष्ठ साहित्यकार की ओढ़नी ओढ़े हुए इतना अवगुंठित है कि उसे अपने समक्ष कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा है।यहाँ ठप्पों की भरमार है।कोई किसी से नीचे नहीं हैं। सभी वरिष्ठ हैं।साहित्य के मूल्य और मूल्यांकन को भला पूछता ही कौन है! जो जितना बड़ा ठप्पाधारी है, वह उतना ही महान अवतारी है। पूछिए हर उस आम से ,जिस पर कोई ठप्पा नहीं चिपका हुआ है। जब नहीं मिल पाता है कोई उचित ठप्पा,तो कोई कोई तो बन जाता है किसी का चमचा। उसी में वह भर-भर भगौना खीर उड़ाता है। और  'उनका आदमी' कहलाता है।आखिर कहीं तो ठप्पे की तसल्ली करनी पड़ती है।

शुभमस्तु !

23.03.2025●11.00आ०मा०

                    ●●●

ठप्पा हमको मिल जाए [नवगीत]



168/2025

   


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


गिरे गगन से

ठप्पा हमको मिल जाए।


भ्रष्टाचार  मिलावट के

हम गुरू बड़े

अँधियारे में लिए

हाथ में दिये खड़े

बोएं एक न बीज

कमल दल खिल जाए।


फर्जी डिग्री बेच

बने  अधिपति ज्ञानी

अपनी ही उपाधि

अपने सिर पर तानी

पूँछ उठे जब ऊपर को

सब हिल जाए।


'विश्व गुरू' हम कहलाते 

कम बात नहीं

बस ठप्पे की बात 

बनाएँ वही सही

करनी पूछे कौन

भले तिल-तिल जाए।


सोने में पीतल है

धनिया लीद मिला

पानी में है दूध

 कहीं फिर भी न गिला

बड़े प्रेम से ज़हर

देश दावत खाए।


शुभमस्तु !


23.03.2025●9.45आ०मा०

                   ●●●

[11:05 am, 23/3/2025] DR  BHAGWAT SWAROOP: 

सुनीता विलियम्स [ अतुकांतिका ]

 167/2025

              

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


नौ महीने चौदह दिन बाद

अंतरिक्ष से लौटे

वैज्ञानिक सुनीता विलियम्स

और बुच विल्मोर,

फ्लोरिडा का समुद्र तट

तीन बजकर 

सत्ताईस मिनट की

सुहानी भोर,

स्पेशएक्स्क्रू-9 कैप्स्यूल

उन्नीस मार्च 

दो हजार पच्चीस।


अंतरिक्ष यात्रियों के

साहस को

नमन करता है संसार,

एक नाउम्मीद

उम्मीद में बदली,

हट गई 

आशंकाओं की बदली,

उनके दुर्लभ अनुभव

जगत ये जाने,

यह भी एक अनुभव है

इसे आगे बढ़ने की

प्रेरणा माने।


वही मुस्कराहट है

वही सुनीता हैं 

बुच हैं,

अनहोनी के बीच

प्रत्यक्ष दो सच हैं।


जय हो विज्ञान की

जय हो  साहस की

मानव के ज्ञान की,

साढ़े उन्नीस करोड़ 

किलोमीटर की महान

दुस्साहसिक यात्रा,

चार हजार

पाँच सौ छिहत्तर बार

पृथ्वी परिक्रमा,

कल्पनातीत अनुभव,

झूलासन गाँव 

गुजरात की   

भारतीय मूल की 

बेटी को नमन।


शुभमस्तु !


20.03.2025●2.30प०मा०

                    ●●●

बातें हमें भाती नहीं हैं [नवगीत]

 166/2025

        


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


खोखले आदर्श की

बातें हमें भाती नहीं हैं।


सोच सबकी भिन्न होती

आज तुमको जानना है

जो उगा हो घास के सँग

घास जैसा मानना है

हम बबूलों से कभी

रातें कभी महकी नहीं है।


तुम उगे क्यारी गुलाबी

पंक से पैदा हुआ मैं

जन्म से ले रजत चमचे

तुम हुए,माँ की दुआ मैं

पीठ है भारी तुम्हारी

मेरी बड़ी छाती नहीं है।


श्याम को तुम श्वेत करते

निगल जाओ सूँड़ हाथी

मरती नहीं गृह मक्क्खियाँ भी

एक अपना है  न  साथी

रवि मंडलों के पार हो तुम

 इह तेल या बाती नहीं है।


शुभमस्तु !


19.03.2025●8.30प०मा०

                ●●●

अमराई [दोहा]

 165/2025

             


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


लगे   चैत्र- वैशाख   ज्यों, अमराई में  धूम।

मची  हुई  है  भोर  से, भ्रमर रहे मधु चूम।।

बौराए   हैं  आम  के, सघन  कुंज छतनार।

अमराई  में   गूँज  है, भ्रमरों का अधिकार।।


सावन   में  अमराइयाँ,  हलचल  से भरपूर।

डाल -डाल   झूले  पड़े,  गोरी मद में चूर।।

अमराई   में    खेलते,    बालक वृंद अनेक।

सघन छाँव  है आम की,कोलाहल अतिरेक।।


होली   आई   झूमते , तितली भ्रमर अनेक।

रौनक  में अमराइयाँ,लिए  सघन दल  टेक।।

कुहू - कुहू  कोकिल  करे, अमराई की छाँव।

बाग  महकते   बौर  से, चहक  रहे हैं  गाँव।।


ग्वाल     प्रतीक्षा  में   खड़े,  आएँ राधेश्याम।

अमराई  की   छाँव   में,क्रीड़ा करें ललाम।।

आते  ही  ज्यों ही दिखे, भौंह नचाते श्याम।

अमराई खिल-खिल गई,गृह तज आईं वाम।।


गिरे    टिकोरे   आम  के, अमराई के  बीच।

बालाएँ   प्रमुदित  बड़ी,जो थीं खड़ीं नगीच।।

थके  पथिक को भा रही,अमराई की छाँव।

भूभर  में  जिनके जले,बिना उपानह पाँव।।


अमराई  में  चू    रहे,  खटमिट्ठे  फल आम।

बाला युवती  भावतीं,  ब्रजनारी सब वाम।।

शुभमस्तु!


19.03.2025● 11.00आ०मा०

                   ●●●

कुहू-कुहू कोयल करे [ दोहा ]

 164/2025

     

[कोयल, कचनार,सेमल,कलिका, कामदेव]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                   सब में एक

कुहू-कुहू कोयल करे, आया मास  वसंत।

अमराई बौरा रही, कलियाँ  कलित अनंत।।

कोयल -वाणी जब सुनी,उठे हिये में हूक।

प्रोषितपतिका है दुखी,  करती है दो टूक।।


कांत कली कचनार की,झूम रहीं हर  डाल।

सुमन बैंजनी नाचते,बजा -बजा ज्यों  ताल।।

खाँसी कफ सूजन सभी,हरण करे कचनार।

कलिका की सब्जी  बना, खाएँ हो उपचार।।


पत्रहीन   सेमल   खड़ा ,जंगल के  एकांत।

लाल सुमन मुस्का रहे,  हृदय हुआ उद्भ्रांत।।

कटि पीड़ा या कब्ज हो,सेमल का उपचार।

भूला यह  जाता  नहीं ,  सुंदर  पर उपकार।।


हर कलिका में फूल का,होता प्रौढ़ विकास।

महक रही है डाल पर ,  बनी वृत्य अनुप्रास।।

यौवन मानो फूल है, कलिका वयस किशोर।

उषा  उदय  उपरांत ही, होता है शुभ  भोर।।


कामदेव करते   कृपा, होता सृष्टि  विकास।

खिलतीं कलियाँ देह में,अंग विकसते   खास।।

कामदेव ऋतुराज का,आया  फागुन   मास।

फूल हँसे कलियाँ खिलीं,तन में हुआ उजास।।


                    एक में सब

सेमल की कलिका खिली, कामदेव का रंग।

कोयल बोले   बाग  में, शुभ कचनार उमंग।।


शुभमस्तु !


19.03.2025●6.00आ०मा०

                    ●●●

अपने-अपने पैमाने से [नवगीत]

 163/2025

           


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अपने- अपने पैमाने से

माप रहे रचनाएँ।


तुमने देखा तुम ही जानो

मेरी मैं ही जानूँ

झूठ कहो मेरी बातों को

क्यों यह मैं सच मानूँ

सबके अनुभव अलग-अलग हैं

देख हमें  उबकाएँ।


थोपो मत अपने दर्शन को

लाद रहे हो जबरन

भाव नहीं होते हैं कवि के

किसी अन्य की उतरन

होंगे जमीदार तुम अपने

नहीं हमें समझाएं।


तुमने  पाटल कमल सजाए

यहाँ उगी बस सरसों

उगे धतूरे के कुछ पौधे

खेत हमारे बरसों

बहे स्वेद अंगों से निशिदिन

कैसे कर बतलाएँ।


मैं लकीर की करूँ फ़कीरी

मुझसे कभी न होना

झूठे आदर्शों में लिपटा 

नहीं रो सकूँ रोना

चाटुकारिता भरी मधुरता

से न हमें बहलाएँ।


शुभमस्तु !


18.03.2025●10.15 आ०मा०

                   ●●●

मन रँगने का उत्सव होली [गीत]

 162/2025

      


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मन रँगने का उत्सव होली।


फागुन मास वसंत सुहाया

खिलते रंग हजार

टेसू पाटल सेमल सरसों

गेंदा नव कचनार

अमराई में उधर डाल पर

कोकिल काली बोली।


तन के रँग तो धुल जाते हैं

मन की अमित तरंग

मन खिलता तो तन भी महके

उठती काम उमंग

तन- मन में उन्माद वसंती

विजया की खा गोली।


लेकर   कर   में   चंदन रोली

रंगारंग गुलाल

महक उठे तन- मन अबीर में

तरुवर अधर कमाल

मन चंगा तो होली निशिदिन

हो ली हो ली हो ली।


शुभमस्तु!


18.03.2025●2.30आ०मा०

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सोमवार, 17 मार्च 2025

भारत [चौपाई]

 161/2025

            


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जगती   में    भारत  भू  न्यारी।

सब   देशों  में   सबसे  प्यारी।।

उत्तर में    है   अद्रि  हिमाचल।

बहती  जिससे गंगा अविरल।।


त्याग    तपस्या   ध्येय   हमारा।

फहरे    गगन   तिरंगा   प्यारा।।

राम कृष्ण की   धरती    भारत।

करते जो दानव   दल    गारत।।


षड्ऋतुएँ     हैं    आतीं   जातीं।

अपने रँग- रस  नित    बरसातीं।।

गेहूँ    चना     मटर    सब होते।

कृषक यहाँ फल सब्जी  बोते।।


सरयू     यमुना    गंगा   बहतीं।

जीवन दान   बहाकर    रहतीं।।

ऋतु    वसंत     बौरे   अमराई।

कोकिल  की    गूँजे    मधुराई।।


विविध वेश   बहु    भाषा  वाले।

 नर- नारी    सब   बड़े  निराले।।

संस्कृति विविध   सभ्यता धारी।

भारत की  महिमा  है    न्यारी।।


तुलसी    सूर    रहीम   कबीरा।

कवि लेखक सर्जक बहु धीरा।।

वीर      शिवाजी    जीजाबाई।

कवियों ने नित महिमा    गाई।।


विविध    रंग   में   खेलें   होली।

निकले  हुरियारों    की    टोली।।

आता  है  जब    पर्व    दिवाली।

दीपों की बहु  जलें     प्रणाली।।


 भारत    देश    महान    हमारा।

हमें  प्राण से है    अति   प्यारा।।

आन- मान    के   हम रखवाले।

हम     भारत  के  पुत्र    निराले।।


शुभमस्तु !


17.03.2025●9.00आ०मा०

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सुबह की सुहानी छटा [गीतिका ]

 160/2025

            

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सुबह  की  सुहानी   छटा  के बहाने।

जलद  जल  लिए हैं घटा के बहाने।।


यहाँ से  वहाँ  तक सघन छाँव फैली,

विटप  वट तना  है जटा  के बहाने।


लजाई  हुई   है   वदन   को  छिपाए,

 गाँव की   गोरी   घुँघटा   के  बहाने।


मिली आँख को  तृप्ति पल एक देखा,

गए  अंबु   पीने    कुअटा  के  बहाने।


'शुभम्'   आज   बाबा बने    घूमते हैं,

बजाते    हुए     चीमटा    के   बहाने।


शुभमस्तु !


17.03.2025●3.00आ०मा०

                  ●●●

छटा के बहाने [सजल]

 159/2025

      

समांत        : अटा

पदांत         :  के बहाने

मात्राभार    :20

मात्रा पतन  :शून्य


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सुबह  की  सुहानी   छटा  के बहाने।

जलद  जल  लिए हैं घटा के बहाने।।


यहाँ से  वहाँ  तक सघन छाँव फैली।

विटप  वट तना  है जटा  के बहाने।।


लजाई  हुई   है  वदन  को  छिपाए।

 गाँव की   गोरी  घुँघटा   के  बहाने।।


मिली आँख को  तृप्ति पल एक देखा।

गए  अंबु   पीने   कुअटा  के  बहाने।।


'शुभम्'   आज  चीवर  रँगे   घूमते हैं।

बजाते    हुए    चीमटा   के   बहाने।।


शुभमस्तु !


17.03.2025●3.00आ०मा०

                  ●●●

आज पापा यार है! [नवगीत ]

 158/2025

           


आज   पापा  यार  है!

ये ब्यार  बदबूदार  है।


पछुआ  हवा  का  वेग है

चलता  यहाँ  पर तेग  है

संतान को क्या हो गया

इंसान जैसे सो गया

घर-घर चली तलवार है 

आज पापा यार है।


आती बहू जब ब्याह वर

वह सीख देती स्याह कर

चूल्हा अलग कर सास से

होता विलग घर आस से

माता -पिता  की हार है

आज पापा  यार है।


पढ़ना  नहीं कुछ  काम का

बस   मंत्र   है   आराम  का

करना नहीं  कुछ  काम भी

होती  सुबह  से   शाम   भी

नव सभ्यता -विस्तार है

आज   पापा   यार   है।


माने न  ससुरा - सास को

खाते खड़े ज्यों घास  को

ये जीभ   ही  औजार है

तलवार का अवतार है

घर   का  ही बंटाढार है

आज   पापा   यार   है।


शुभमस्तु !


15.03.2025●9.15 प०मा०

                  ●●●

तुम क्या समझो पापा यार! [नवगीत]

 157/2025



©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


नए जमाने की बातों को

तुम क्या समझो पापा यार!


आजादी से पहले के तुम

हमें पूर्ण है आजादी

हमने पहनी जींस टॉप सब

तुमको प्रिय  मोटी खादी

अब के युग की शह-मातों को

तुम क्या समझो पापा यार!


तुम खाते थे सब्जी-  रोटी

हम बर्गर  पीज़ा में मस्त

नूडल चाऊमीन  उड़ाते

ढिल्लमढिल्ल नहीं हम चुस्त

सहते  तुम थप्पड़ लातों को

तुम क्या समझो पापा यार!


कैरोसिन का लम्प जलाकर

रात - रात भर फोड़ीं आँख

आज देख लो बल्ब फ़क़ाफ़क

सावन भादों या वैशाख

बफ़र दावतें बारातों को

तुम क्या समझो पापा यार!


 मोबाइल  तब  एक नहीं था

हाथ - हाथ में अब मोबाइल

मुट्ठी  में अब   दुनिया  सारी

कौन नहीं   इसका   काइल

अंतर राष्ट्रीय  नातों को

तुम क्या समझो पापा यार!


घूमा  करते  थे  तुम  नंगे

दस-दस साल बिना परिधान

आज हमारा क्या युग आया

बनी  हमारी  भी पहचान

देखा है बोरी - छातों को

तुम क्या समझो पापा यार!


शुभमस्तु !


15.03.2025●8.30प०मा०

                  ●●●

खरबूजे की बारी है! [नवगीत]



 156/2025

     

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मूँगफली जी विदा हो गईं

खरबूजे की बारी है।


होली गई विदा हुरियारे

चना खेत में नाच रहा

अरहर रह-रह कटि मचकाए

गेहूँ खेत  कुलाँच रहा

गेंदा को गुलाब हड़काये

मह -मह गमला क्यारी है।


बूढ़े उस पीपल में आई

फिर से नई जवानी है

कामदेव ने अपनी धन्वा

फिर से घर -घर तानी है

पीपल नीम हँस रहे रह-रह

मदमाते  नर -नारी हैं।


तरबूजे ने हृदय चीर कर

लाल - लाल दर्शाया है

जामुन भरे जुनून जोश में

आम्र कुंज मुस्काया है

महुआ मह-मह महक रहा है

मन्मथ का अवतारी है।


लिपट गई हैं लता आम से

अंगूरी अंगूर सजे

पछुआ चले  बाग में रह-रह

लंगूरों के हुए मजे

कोल्हू चले बाग में निशिदिन

गुड़ भेली रसदारी है।


शुभमस्तु !


15.03.2025●5.30 प०मा०

                  ●●●


नई सभयता के क्या कहने! [नवगीत]

 155/2025

  

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


चरणों से सिर तक जा पहुँची

नई सभ्यता क्या कहने !


छूने का नाखून चरण के

कहलाता था प्रमन नमन

अब तो कमर नहीं झुकती है

आत्मलीन नर करे दमन

घुटनों तक छूने की सीमा

नई सभ्यता क्या कहने!


अब तो त्वरित तरक्की  देखी

जांघों तक वह सतराया

आँखें झुकीं न लेशमात्र भी

शीश उठाकर तन पाया

गुरुजन से वह हाथ मिलाए

नई सभ्यता क्या कहने!


सूख गया आँखों का पानी

बदली हुई कहानी है

बेटा बाप बना पितुवर का

घरनी घर की रानी है

भेजे पिता- मातु वृद्धाश्रम

नई सभ्यता के क्या कहने!


शुभमस्तु !


15.03.2025● 3.30प०मा०

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तुम क्या जानो पापा यार! [नवगीत]

 154/2025

  

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'



नए जमाने की बातों को

तुम क्या जानो पापा यार!


बीत गया अब वक्त पुराना

अब आया है नया जमाना

रहीं कहाँ वे बात पुरानी 

रहन-सहन भी पीना- खाना

बात  पुरानी  सब   बेकार

तुम क्या जानो पापा यार!


तुमने जितना दूध पिया है

पानी हमें नसीब नहीं

तुमने घी में माल उड़ाए

हमको छाछ करीब नहीं

जीना  किया हमें दुश्वार

तुम क्या जानो पापा यार!


बीस बरस के होते -होते

बन जाते थे  दो के बाप

बीत गए चालीस हमारे

छड़े घूमते   झेलें शाप

भले चलाते बाइक कार

तुम क्या जानो पापा यार!


तीस बरस में कमर हमारी

झुककर आज कमान हुई

साठे पर भी तुम पाठा थे

शक्ति हमारी कहाँ चुई

बढ़ी वक्त की अब रफ्तार

तुम क्या जानो पापा यार!


हम तो हैं गूगल के ज्ञानी

तुमने लिए जबानी सीख

बिना गणक के गुणा न होता

ए आई से माँगें  भीख

नए पुराने की है रार

तुम क्या जानो पापा यार!


शुभमस्तु !


15.03.2025●3.00प०मा०

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ये जीवन रंगों का मेला [अतुकांतिका]

 153/2025

         


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


ये जीवन रंगों का मेला

कभी उजाला कभी अँधेरा

किसने कौन रंग  है पाया

कब किसने क्या-क्या है झेला।


कभी दिवाली होती होली

कभी विजय का पर्व दशहरा

आँगन में बहुरंग रंगोली

कभी एक रँग गहरा हलका।


हाथ किसी के रँग गुलाल है

कोई चर्चित चंदन मानव

कोई ले पिचकारी आया

कोई हिंस्र गिद्ध -सा जीता।


रँग गुलाल सब ही प्रतीक हैं

खुशहाली के  मन के मोती

हिना बाँटने से कर    रँगते

आवंटक की हँसती ज्योति।


आओ हम भी रँग ही बाँटें

सभी मनाएँ मन से होली

बैर भाव को जला आग में

गले मिलें हर प्रियता लाएँ।


शुभमस्तु !


13.03.2025● 7.45प०मा०

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यही है असली होली [दुमदार दोहा]

 152/2025

        


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


जहर   भरा  हर  तेल हो,घृत हो चर्बीदार।

खोया में मैदा  भरी, होली   का त्योहार।।

यही है असली होली।


रंग  रसायन  से   बने, नकली लाल गुलाल।

इनको असली मान लो,करो न एक सवाल।।

यही है असली होली।


'विष विद्यालय'   खोलिए, नकली डिग्री बेच।

कुलाधिपति बनकर पुजें,कसें शिष्य के पेच।।

यही है असली होली।


साँठगाँठ   ऊपर   करें,  जा  नेता  के पास।

उठे  पूँछ  जब आपकी,  होना नहीं उदास।।

यही है असली होली।


धनिए   में  देना  मिला, निर्भय होकर  लीद।

कहलाओगे   सेठजी,   गहरी   आए नींद।।

यही है असली होली।


दूध  दुहो  जब भैंस का, करें न हृदय मलीन।

दुहनी  में  पानी  भरें,  पहले ही नित क्लीन।।

यही है असली होली।


हल्दी हो  या  मिर्च  हो,  सब में रँग का मेल।

करें सेठजी  नित्य  ही, आँख बचाकर   खेल।।

यही है असली होली।


भ्रष्ट तंत्र   के  खेल  में,  खेल  रहे जो   लोग।

दूध  धुले  कहते  उन्हें,  उन्हें न व्यापे  रोग।।

यही है असली होली।


चमचागीरी   जो  करे, भर- भर खाए  खीर।

कहाँ मिली हर आम को,कुछ ऐसी तकदीर।।

यही है असली होली।


रुपए पाँच सौ की किलो,चीनी का मिष्ठान्न।

हाथ तोंद   पर फेरते, लालाजी   सह  मान।।

यही है  असली होली।


बात  करें  आदर्श  की, परदे में कुछ और।

चरस और  गाँजा  पिएं,नहीं कराते क्षौर।।

यही है असली होली।


शुभमस्तु !


13.03.2025● 4.15प०मा०

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मोबाइल से खेलने [नवगीत]



\ 151/2025

        

© शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


आ रहे हैं संदेश रँगे

मोबाइल से खेलने।


हुड़दंग है होली का 

आप भी भागीदार हो

मिटा रहा हूँ बारंबार

आदत से लाचार हो

चुक गए क्या  शब्द रंग

आ  गए  हो ठेलने।


रेडीमेड माल का

जमाना ये नकली है

रिफाइंड घासलेट सब

एक नहीं असली है

भीतर भरे कचरे को

बाहर उंडेलने।


तुम्हारा काला अक्षर भी

भैंस के बराबर क्या?

भूल गए क ख ग

थोड़ी तो करो दया

मुश्किल बढ़ाई हमारी

हमें पड़ा झेलने।


शुभमस्तु !

13.03.2025●2.45प०मा०

                 ●●●


कहाँ फाग के रंग! [नवगीत]



150/2025

     

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


फागुन का प्रस्थान हो गया

कहाँ फ़ाग के रंग।


गेंदा खिले गुलाब महकते

शरमाती कचनार

सरसों ओढ़े पीत ओढ़नी 

मटर बाँटती प्यार

गेहूँ गह-गह महुआ मह-मह

पीपल वट के संग।


सेमल सहमा मौन अकेला

बरसा रहा अबीर

अजहुँ न लौटे कन्त साँवरे

धरे न विरहिन धीर

सेज नागिनी डंसे रैन -दिन

उर में नहीं उमंग।


रूखी -सूखी पिचकारी में

रँग का पड़ा अकाल

सूखी उड़े चुनरिया गोरी

सँग का रहा सवाल

मन की मन में साध शेष है

देह चोलिका तंग।


शुभमस्तु !


13.03.2025●1.००प०मा०

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[2:59 pm, 13/3/2025] DR  BHAGWAT SWAROOP: 151/2025

हुड़दंग [सोरठा]

 149/2025

               


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बचा भक्त प्रह्लाद,बुआ होलिका ही जली।

दर्शक पाते  स्वाद,डफ ढोलक हुड़दंग में।।

कीचड़ में कुछ लीन, कोई  खेले  रेत  से।

जन के वसन नवीन,फाड़ दिए हुड़दंग में।।


देखें  आन न मान, सीमा क्या हुड़दंग  की!

अपनी  ही  दें तान,होली  बुरा न मानना।।

कर गोपी  से  रार, ग्वाल-बाल  हुड़दंग में।

रखते  नहीं  उधार, चूनर   रँगते   रंग  से।।


रँगे श्याम   के  गाल, ब्रजनारी  हुड़दंग   में।

चंदन टीका भाल,काजल बिंदिया भी सजा।।

मत  सीमा  को  तोड़,  होली   के हुड़दंग  में।

डोर  नेह   की   जोड़ , बैर  नहीं  तू ठानना।।


तजना  नहीं  विवेक,भरसक होली खेलना।

कर्म   करें  सब  नेक, मर्यादा सबकी  रखें।।

होली में   हुड़दंग,   नहीं  बड़ों  को सोहता।

बरसे   नेहिल  रंग,  माथे  मलें गुलाल  भी।।


उधर मचा हुड़दंग,धम-धम डफ ढोलक करें।

बरसें   नौ - नौ  रंग,  लठामार  होली   हुई।।

ब्रजवनिता    बलदेव,   चलीं  हुरंगा खेलने।

जायज  सभी  फरेव, करतीं  जो हुड़दंग  वे।।


मचा     रखी   है   रार,  होली के हुड़दंग  ने।

मानें  युवा न   हार, छप्पर - छानी  दें   जला।।

शुभमस्तु !


13.03.2025●10.45आ०मा०

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अबीर [ दोहा ]

 148/2025

                 


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


होली  के    नव  रंग  में, उड़ता  लाल   अबीर।

गोरी के  मुख पर  मला,  रहा न  उर में    धीर।।

चंदन  रंग    अबीर   का,  अपना अद्भुत   रंग।

खेल   रहीं   नर -  नारियाँ,  उर में भरे   उमंग।।


कटि  में  पिचकारी  दबी,  कर  में छिपा अबीर।

श्याम  चले  रस रंग  को, नेंक नहीं उर    धीर।।

बने  हुरंगा   श्याम जी,  होली  का उर    चाव।

ले   अबीर  रँग  हाथ  में,चंचल मृदुल  स्वभाव।।


भर - भर    मुट्ठी    हाथ  में,   हुलसे गोपी- ग्वाल।

रोली     रंग      अबीर    से,    करते   हुए धमाल।।

डिमिक-डिमिक ढपली बजे, ढम- ढम ढोलक बोल।

बरसें   रंग   अबीर   के,   चहुँ  दिशि   मेघ  अमोल।।


फागुन   चैत्र     वसंत  का,  होली   नव   उल्लास।

उड़ता   लाल   अबीर  रँग, कलियाँ करतीं   हास।।

यमुना    तीर  अबीर   का, अनुपम शुभ     भंडार।

चलती   फगुआ   जोर से,  करते तरु     तकरार।।


राधा के  कर   रंग   है,  कर   में  श्याम  अबीर।

खेल रहे  हैं   ग्वाल   सब,  होली  हुए    अधीर।।

पीत   रंग   का    सोहता, सुमनों  पर  जो   रंग।

लगता   सजा  अबीर   है,देख  भ्रमर  दल   दंग।।


होली   में   मदमस्त  हैं,श्याम गोपियाँ   ग्वाल।

कोई    मले    अबीर     है, करते  रंग धमाल।।


शुभमस्तु !

12.03.2025●7.30 आ०मा०

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होली में सब मग्न हैं [दोहा]

 147/2025

      

[महुआ,मदिर,मृदंग,होली,हुड़दंग]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                 सब में एक

कल्पवृक्ष    है  गाँव  का,  महुआ   जीवन-अक्ष।

महक  रहा है देख  लो,कण - कण आज प्रत्यक्ष।।

महुआ गमके    चैत्र  में,  महक रहा    भिनसार।

भर-भर  झोली   बीनते, बालक सब   नर- नार।।


गोरी    तेरी    देह   की, मदिर  गंध   का    राज।

पाटल   भी   समझा  नहीं, तेरा सुघर  सुसाज।।

मदिर  नयन  के  बाण  से, घायल उर  का  चैन।

उथल-पुथल    हो   देह  में,  कटें  नहीं दिन-रैन।।


मन  मृदंग  धम - धम  करे,आया मास  वसंत।

तिया बाट  निशिदिन  करे, अजहुँ न लौटे कंत।।

डफ   ढोलक  बजने    लगे, बजते चंग  मृदंग।

होली     का   हुड़दंग  है,  बरस  रहा   है    रंग।।


होली  में सब  मग्न  हैं, नर - नारी  तरु - बेल।

बरसें    रंग    गुलाल   के,   खेल  रहे हैं खेल।।

फागुन   आया  झूमता,   ले   रँग रोली   भंग।

होली  में   तरु   नाचते, लिपटी लतिका   तंग।


होली   में  हुड़दंग   की , करें  न सीमा   भंग।

मर्यादा    अपनी   रखें,   बरसे  बस रस रंग।।

हुड़दंगी    हुड़दंग   से, शांति करें नित   भंग।

चैन   उन्हें   मिलता   तभी,करें शांति   बदरंग।।


                    एक में सब

होली  का  हुड़दंग  है, बजते  मदिर   मृदंग।

मह-मह महुआ  लूटते,बालक मस्त   मलंग।।


शुभमस्तु !


12.03.2025●6.45आ०मा०

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होली [ चौपाई ]

 146/2025

                

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


फागुन     लगा     आम     बौराया।

शुभ होली   ने     रँग     बरसाया।।

टेसू   और    गुलाब      खिले     हैं।

तितली    भौंरे     हिले-  मिले   हैं।।


होली     का    है     समा    निराला। 

मन  मादक     मोहित     मतवाला।।

डाली - डाली        कोकिल    बोली।

गाती    फाग      निराली     होली।।


पिचकारी    ले      बालक     आए।

धमाचौकड़ी      कर - कर    धाए।।

भीग  रही    भाभी     की     चोली।

कहते       तुमसे      खेलें    होली।।


डफ -   ढोलक  ने   धूम     मचाई।

नाच     रही    हैं     भाभी     ताई।।

देवर  से      हँस      भाभी   बोली।

खेलेंगीं     हम     तुमसे       होली।।


गेहूँ     चना     मटर     सँग    नाचे।

लहर   पवन   में    भरे     कुलाँचे।।

सेमल  सुमन       लाल    मनभाये।

सजे    डाल पर    सघन    सुहाए।।


घर - घर   गुझिया   पापड़  महके।

पिचकारी  ले     बालक    चहके।।

डिम-डिम  धम-धम   बजते बाजे।

होली     के       खुलते   दरवाजे।।


रंगों   का    शुभ     उत्सव    होली।

जीजा -  साली      करें    ठिठोली।।

पोतें  रँग    गुलाल     मुख    चंदन।

करें होलिका     का     अभिनंदन।।


शुभमस्तु!


10.03.2025● 8.30 आ०मा०

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अलग-अलग साँचे में ढाले [गीतिका]

 145/2025

   

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अलग  - अलग    साँचे  में   ढाले।

जीव  जगत   में     बड़े    निराले।।


 अपने - अपने    ढँग     से   रहते,

रहन - सहन में   सब     मतवाले।


नेता   -  चरित    न     जाने   कोई,

रात  - रात  में      बदले      पाले।


जनता   आम    बनी    चुसती   है,

बने   मूढ़      जन   भोले  - भाले।


सत्य   बोलने     पर     बंधन    है,

पड़े  जुबाँ  पर     उनकी     ताले।


नेताओं      के    महल  -  दुमहले ,

उधर   अँधेरे      इधर      उजाले।


'शुभम्'   त्रस्त   है   जनगण  सारा,

भरे         अँधेरे     काले -  काले।


शुभमस्तु !


10.03.2025●7.30 आ०मा०

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नेता चरित न जाने कोई [सजल]

 144/2025


समांत        : आले

पदांत         :अपदांत

मात्राभार    : 16

मात्रा पतन  : शून्य।


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अलग  - अलग   साँचे  में  ढाले।

जीव   जगत  में   बड़े    निराले।।


 अपने - अपने    ढँग     से   रहते।

रहन - सहन में   सब     मतवाले।।


नेता   -  चरित    न     जाने   कोई।

रात  - रात  में      बदले      पाले।।


जनता   आम    बनी    चुसती   है।

बने   मूढ़      जन   भोले  - भाले।।


सत्य   बोलने     पर     बंधन    है।

पड़े  जुबाँ  पर     उनकी     ताले।।


नेताओं      के    महल  -  दुमहले ।

उधर   अँधेरे      इधर      उजाले।।


'शुभम्'   त्रस्त   है   जनगण  सारा।

भरे         अँधेरे     काले -  काले।।


शुभमस्तु !


10.03.2025●7.30 आ०मा०

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गुरुवार, 6 मार्च 2025

बंद किले के नौ दरवाजे [नवगीत]

 143/2025

   

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बंद किले के नौ दरवाजे

दसवाँ बंद सपाट।


सब पर  बैठे  देव- देवियाँ

अलग सभी के काम

सभी सहायक बने परस्पर

बने हुए नव धाम

आए एक एक जाए तब

करनी होती बाट।


आनन वाणी नाक पवन का

युगल नयन रवि चंद

गगन श्रवण में जनन अंग में

ब्रह्मावास अमंद

यम का द्वार छिपा है नीचे

करता काज विराट।


दशम द्वार की चिंता किसको

आवृत सुदृढ़ कपाल

जहाँ वास हरि शीश विराजे

जिसका  गात धमाल

करता रहता जीव रात-दिन

चादर ओढ़े ठाट।


शुभमस्तु !


05.03.2025●2.00प०मा०

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मत उभारो पीर अपनी [नवगीत]

 142/2025

     


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मत उभारो पीर अपनी

जो हृदय को सालती है।


बहुत विस्तृत ये जहाँ है

फूल भी काँटे हजारों

वेदना का विश्व सागर

दुःख के जलते अँगारों

बोलियाँ भाषा न सम हैं

मनुजता खंगालती है।


आम ही  हो  वस्तु  अपनी

खास को मत व्यक्त करना

आत्म को  लाना  न बाहर

रिक्त का  ही  पात्र   भरना

नारियाँ -  नर पात्र  तेरे

पर निजीपन ज्यादती है।


हर विषय की वस्तु निर्मल

दोष तो भीतर हृदय के

भावना  का खेल है सब

अस्त होती या उदय के

लेखनी कवि की उठे जो

भाव को सम्भालती है।


शुभमस्तु !


05.03.2025● 11.45आ०मा०

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नारी [दोहा]

 141/2025

                   


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


नारी  नर  की  है  प्रसू, नव्य  सृजन की हेतु।

नर-नारी   संयोग  से,  फहरे   नभ में   केतु।।

पुरुष   बिना  नारी नहीं, नारी बिना न  सृष्टि।

वृथा अहं  एकल  सदा, मेघ  बिना क्या वृष्टि।।


नर-नारी  रचना  बड़ी, जटिल  ईश की  सोच।

धन-ऋण का संगम जहाँ, वहीं युगल  में रोच।।

नर-नारी    दो  चक्र  हैं, वाहन  के यह   जान।

नहीं  एक   ही  चक्र  से, चले  न वाहन  मान।।


हर  नारी  की  बुद्धि   के,हैं  विचित्र सब  तत्त्व।

नर  से  सदा   विरोध  ही, नारी का अस्तित्व।।

नारी    के  बहिरंग  में,   खो  जाता जो   व्यक्ति।

प्रथम   भूल    सबसे  बड़ी,  नारी से अनुरक्ति।।


नारी      एक    प्रहेलिका,  रहती  सदा    रहस्य।

जितना   अंतर   भेदिये,  उतनी  गूढ़     रसस्य।।

नारी   के   गुणसूत्र  में,   नर  से  सब   असमान।

लगे   बहुत  सामान्य - सी,  ताने  रहे    कमान।।


नारी  नर  के  क्षेत्र  हैं,  यद्यपि  अति असमान।

चले  न   सीधी  चाल  से,कर में तान   कमान।।

नारी  को  जिसने   कहा, सीधी सरल   समान।

जलकुंभी-सी    छा  गई, ताने  विशद  वितान।।


पुरुषों  ने  समझा  नहीं, बीते   युग- युग  आज।

नारी  सदा   विचित्र  है,  नर  जीवन का साज।।


शुभमस्तु !


05.03.2025●09.45आ०मा०

सद्गुण बिना न मोल [दोहा]

 140/2025

         

[चारुता,चितचोर,अवगुंठन,अनुकूल,अशोक]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

             

                सब में एक

चटुल चारुता चर्म  की,सद्गुण बिना न मोल।

कृत्रिम  धी   से   हो   बनी,थोथा ढोलम पोल।।

नारी  की  तन - चारुता,  ज्यों माटी  की  देह।

कठपुतली-सी  नाचती , है  यथार्थ   में   खेह।।


गोपी    बोली   श्याम  से, हे  मोहन चितचोर।

शीश  तुम्हारे   सोहता,  मोरपंख ज्यों  भोर ।।

माखन  की  चोरी  करे, ज्यों  हो स्वर्णिम  भोर।

यशुदा   तेरा   लाड़ला,  बहुत बड़ा चितचोर।।


अवगुंठन में   रूप  की, जलती हुई   मशाल।

रूपसि   तेरे   रूप   का, चारों ओर धमाल।।

अवगुंठन में   झाँकता, रूपसि तेरा  रूप।

देख  भ्रमर  दल  मौन  हैं, भले काटती धूप।।


पति - पत्नी अनुकूल   तो, गेह बने  अनुकूल।

सुख  साधन  उर  में बसे, कभी न जाना  भूल।।

राजा  हो अनुकूल तो, जनता करे   विकास।

कर से  चूसे  देश   को, जन के  सँग उपहास।।


मौर्य  वंश   प्रख्यात   हैं,   राजा  वीर अशोक।

मुद्रा पर जिनकी  छपे, लाट  अमर बिन  रोक।।

जहाँ  न  कोई  शोक  हो,कहते उसे अशोक।

नहीं सहज  यह  भाव यों,जग में यही विलोक।।


                एक में सब

न  हो चारुता चित्त में, अवगुंठन  चितचोर।

उर अशोक अनुकूल हो, दृढ़ वैराग्य विभोर।।

शुभमस्तु !


04.03.2025●11.15प०मा०

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मंगलवार, 4 मार्च 2025

बीत गया जो वक्त [नवगीत]

 139/2025

        


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


लगता है कल की ही बातें

बीत गया जो वक्त ।


जैसे कोई चक्र घूमता

चले वक्त की रील

नहीं किसी भी एक बिंदु पर

गाड़ी हुई न कील

फिर भी लगता अब ही बीता

रीत गया जो वक्त।


शिशुपन बचपन यौवन सबका

अलग -अलग है स्वाद

चलती है जब चरखी मन में

आ जाता सब याद

हम ही रहे हारते निशिदिन

जीत गया है वक्त।


छूट गए हैं संगी साथी

मिला नयों का साथ

चलता रहा राह में राही

बदल - बदल कर  पाथ

काम नहीं चलता उसके बिन

मीत हुआ है वक्त।


शुभमस्तु!


04.03.2025●2.45प०मा०

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सब हमजोली बुढ़ा गए हैं [नवगीत]

 138/2025

     

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सब हमजोली बुढ़ा गए हैं

जिनके सँग खेले रँग होली।


कौन कहाँ है नहीं पता है

ठौर ठिकाना कैसे जानें

खेले थे जो गिल्ली डंडा

नहीं रहे वे कैसे मानें

टेसू लेकर दर-दर जाते

गुच्ची पाड़ा कंचा गोली।


चौथापन आया तन-मन में

बचपन नहीं भुला पाया है

चिंतारहित  खेलना खाना

चिंताओं का अब साया है

एक-एक होते हम ग्यारह

बन जाती थी लंबी टोली।


नयन हो गए चार कभी तो

जतलाने में भी  शरमाया

कभी पिटा पीटा यारों को

घर पर आकर नहीं बताया

मंदिर  या भगवान न जाने

नहीं धूप चंदन या रोली।


सात दशक से ऊपर आया

मन में फिर भी वही चाव है

मातु शारदा संग हमारे 

रहती हैं नित शुद्ध भाव है

शब्दों का ही चित्रकार बन

हिंदी जैसी मधुरिम बोली।


शुभमस्तु !


04.03.2025●1.15प०मा०

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ठौर वही है गंगाजल भी [नवगीत]



137/2025

       

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


ठौर  वही  है  गंगाजल भी

क्या अब पापी नहीं तरेंगे?


गोता मारे गिन-गिन सौ-सौ

क्या गंगा वह बान रखेगी

साठ  करोड़  तरे  ले गोते

उनमें मेरा  नाम लिखेगी

न्यायालय के द्वार बंद हैं

क्या हम लादे पाप मरेंगे?


इतना तो निश्चय ही जानो

बिजनिस उनका नहीं चलेगा

ठगी बंद होगी जनता से

कोई जन को नहीं छलेगा

राजनीति के छल -छद्मों से

अब भंडारे नहीं भरेंगे।


नहीं जानते 'शुभम्' मूढ़ तुम

भीड़भाड़ का मोल बड़ा है

राष्ट्र एकता  इसको  कहते

जन लुटने को स्वयं खड़ा है

कुंभ   हो  गए रिक्त देश के

अब न खाक से लाख बनेंगे।


शुभमस्तु !


04.03.2025● 12.15प०मा०

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[1:17 pm, 4/3/2025] DR  BHAGWAT SWAROOP: 138/2025

उदासीन मन का प्रतिबिंबन [गीत]

 136/2025

   

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


उदासीन मन का

प्रतिबिंबन

मुखड़े पर दर्शित है गोरी।


घर परिजन की

व्यथा सालती

मुखड़े का दर्पण दिखलाए

कौन सुने

समझे दुनिया में

मन की व्यथा जिसे बतलाए

रूपवती का रूप

सुमनवत डाली पर 

मुरझाया भोरी।


लगता है 

पतिदेव न आए

कैसे मुख की कली खिलेगी

करे प्रतीक्षा

कब आएँगे

जब तरुवर से वह लिपटेगी

देखेगी प्रियतम

की शोभा

आँख बचाकर चोरी-चोरी।


भीतर के 

सुख-दुख जो सारे

दर्पण में आ जाते यों ही

निर्धनता 

कोई अभाव हो

बिखरा जाते हैं वे त्यों ही

लगता है 

अपने प्रियतम की

आतुर है सुनने को लोरी।


शुभमस्तु!


04.03.2025●6.15आ०मा०

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सच कह दूँ तो [ नवगीत ]

 135/2025

           


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सच कह दूँ तो बुरा मानते

ये दुनिया के लोग।


झूठों की टकसाल खुली है

भरे हुए अखबार

टीवी पर झूठों की पूजा

जन पर वही सवार

निकल गया जो सत्य जीभ से

बने सत्य को रोग।


माला शॉल प्रतीक चिह्न का

अच्छा है व्यापार

थोड़ा  हाथ बढ़ाओ तुम भी

बन जाएँ वे यार

कहलाओगे काव्य धुरंधर

बिना किसी तप योग।


कुंभ  नहाए  धर्मी-कर्मी

शेष रहे जो लोग

किया न होगा पुण्य एक भी

लगे न उसके जोग

अब पछताने से क्या होगा

करो नहीं अब सोग।


शुभमस्तु !


03.03.2025●12.45 प०मा०

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चैत्र [चौपाई]

 134/2025

                  

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


चैत्र   शुक्ल  की    पड़वा   आई।

ब्रह्मा जी  ने       सृष्टि    बनाई।।

चैत्र    मास    की   पूनम  भाई।

चित्रा  नखत  लगा    सुखदाई।।


हिंदू  प्रथम    मास    शुभकारी।

गाते     वेद     पुराण     पुरारी।।

वर्ष  प्रतिपदा का  दिन   आया।

 हिंदू      वर्षारंभ       सुभाया।।


चैत्र   मास  ऋतुओं   का  राजा।

कहलाए   मधुमास     सुसाजा।।

नवारम्भ     जो     करना   कोई।

शुभदाकारी  हर     तिथि   होई।।


राम जन्म दिन    शुभ    नवराते।

शुभकारी  सब     लोग   मनाते।।

फागुन       गया   चैत्र     हर्षाया।

हिल- मिल हिंदू  मास    मनाया।।


विष्णु   रूप     मत्स्य    अवतारे।

मनु जी के   सब    कष्ट   निवारे।।

जल  की प्रलय हुई   जब   भारी।

प्रथम  रूप ने     विपदा     टारी।।


जैसा   नाम     काम    मधुमासा।

चैत्र मास  तरु लता     विकासा।।

ऋतुओं  का    राजा  शुभ आया।

तरु लतिका  ने  साज   सजाया।।


वट पीपल   सब     हँसते  झूमें।

भँवरे    कलियों के  मुख   चूमें।।

चैत्र  मास   की    चारु    हवाएँ।

नवल सृजन के    द्वार  सजाएँ।।


शुभमस्तु !


03.03.2025●7.45आ०मा०

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डाल-डाल पर [गीतिका]

 133/2025

               


डाल -डाल  पर खिलतीं  कलियाँ।

लगें  मनोहर     मोहक   छवियाँ।।


मर्यादा     में      रहना       सीखें,

कहतीं    गंगा    यमुना    नदियाँ।


लोग  न    झाँकें     ग्रीवा   अपनी,

खोज  रहे  औरों   में     कमियाँ।


मीन -  मेख   करतीं   आपस  में,

जब मिलतीं  आपस  में जनियाँ।


मिला  दूध  में   सरि   का  पानी,

जिसमें निकलीं  चार   मच्छियाँ।


एक     अजूबा      हमने     देखा,

मौन  धरे  कुछ   बैठीं     सखियाँ।


भर - भर    गाड़ी   आलोचक   हैं,

'शुभम्'  उड़ाते   नित्य   धज्जियाँ।



शुभमस्तु !


03.03.2025●6.15आ०मा०

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लोग न झाँकें [सजल]

 132/2025

             


समांत        :इयाँ

पदांत         : अपदांत

मात्रा भार    :16.

मात्रा पतन  :शून्य


डाल -डाल  पर खिलतीं  कलियाँ।

लगें  मनोहर     मोहक   छवियाँ।।


मर्यादा     में      रहना       सीखें।

कहतीं    गंगा    यमुना    नदियाँ।।


लोग  न    झाँकें     ग्रीवा   अपनी।

खोज  रहे  औरों   में     कमियाँ।।


मीन -  मेख   करतीं   आपस  में।

जब मिलतीं  आपस  में जनियाँ।।


मिला  दूध  में   सरि   का  पानी।

जिसमें निकलीं  चार   मच्छियाँ।।


एक     अजूबा      हमने     देखा।

मौन  धरे  कुछ   बैठीं     सखियाँ।।


भर - भर    गाड़ी   आलोचक   हैं।

'शुभम्'  उड़ाते   नित्य   धज्जियाँ।।



शुभमस्तु !


03.03.2025●6.15आ०मा०

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...