गुरुवार, 6 मार्च 2025

बंद किले के नौ दरवाजे [नवगीत]

 143/2025

   

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


बंद किले के नौ दरवाजे

दसवाँ बंद सपाट।


सब पर  बैठे  देव- देवियाँ

अलग सभी के काम

सभी सहायक बने परस्पर

बने हुए नव धाम

आए एक एक जाए तब

करनी होती बाट।


आनन वाणी नाक पवन का

युगल नयन रवि चंद

गगन श्रवण में जनन अंग में

ब्रह्मावास अमंद

यम का द्वार छिपा है नीचे

करता काज विराट।


दशम द्वार की चिंता किसको

आवृत सुदृढ़ कपाल

जहाँ वास हरि शीश विराजे

जिसका  गात धमाल

करता रहता जीव रात-दिन

चादर ओढ़े ठाट।


शुभमस्तु !


05.03.2025●2.00प०मा०

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मत उभारो पीर अपनी [नवगीत]

 142/2025

     


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मत उभारो पीर अपनी

जो हृदय को सालती है।


बहुत विस्तृत ये जहाँ है

फूल भी काँटे हजारों

वेदना का विश्व सागर

दुःख के जलते अँगारों

बोलियाँ भाषा न सम हैं

मनुजता खंगालती है।


आम ही  हो  वस्तु  अपनी

खास को मत व्यक्त करना

आत्म को  लाना  न बाहर

रिक्त का  ही  पात्र   भरना

नारियाँ -  नर पात्र  तेरे

पर निजीपन ज्यादती है।


हर विषय की वस्तु निर्मल

दोष तो भीतर हृदय के

भावना  का खेल है सब

अस्त होती या उदय के

लेखनी कवि की उठे जो

भाव को सम्भालती है।


शुभमस्तु !


05.03.2025● 11.45आ०मा०

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नारी [दोहा]

 141/2025

                   


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


नारी  नर  की  है  प्रसू, नव्य  सृजन की हेतु।

नर-नारी   संयोग  से,  फहरे   नभ में   केतु।।

पुरुष   बिना  नारी नहीं, नारी बिना न  सृष्टि।

वृथा अहं  एकल  सदा, मेघ  बिना क्या वृष्टि।।


नर-नारी  रचना  बड़ी, जटिल  ईश की  सोच।

धन-ऋण का संगम जहाँ, वहीं युगल  में रोच।।

नर-नारी    दो  चक्र  हैं, वाहन  के यह   जान।

नहीं  एक   ही  चक्र  से, चले  न वाहन  मान।।


हर  नारी  की  बुद्धि   के,हैं  विचित्र सब  तत्त्व।

नर  से  सदा   विरोध  ही, नारी का अस्तित्व।।

नारी    के  बहिरंग  में,   खो  जाता जो   व्यक्ति।

प्रथम   भूल    सबसे  बड़ी,  नारी से अनुरक्ति।।


नारी      एक    प्रहेलिका,  रहती  सदा    रहस्य।

जितना   अंतर   भेदिये,  उतनी  गूढ़     रसस्य।।

नारी   के   गुणसूत्र  में,   नर  से  सब   असमान।

लगे   बहुत  सामान्य - सी,  ताने  रहे    कमान।।


नारी  नर  के  क्षेत्र  हैं,  यद्यपि  अति असमान।

चले  न   सीधी  चाल  से,कर में तान   कमान।।

नारी  को  जिसने   कहा, सीधी सरल   समान।

जलकुंभी-सी    छा  गई, ताने  विशद  वितान।।


पुरुषों  ने  समझा  नहीं, बीते   युग- युग  आज।

नारी  सदा   विचित्र  है,  नर  जीवन का साज।।


शुभमस्तु !


05.03.2025●09.45आ०मा०

सद्गुण बिना न मोल [दोहा]

 140/2025

         

[चारुता,चितचोर,अवगुंठन,अनुकूल,अशोक]


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

             

                सब में एक

चटुल चारुता चर्म  की,सद्गुण बिना न मोल।

कृत्रिम  धी   से   हो   बनी,थोथा ढोलम पोल।।

नारी  की  तन - चारुता,  ज्यों माटी  की  देह।

कठपुतली-सी  नाचती , है  यथार्थ   में   खेह।।


गोपी    बोली   श्याम  से, हे  मोहन चितचोर।

शीश  तुम्हारे   सोहता,  मोरपंख ज्यों  भोर ।।

माखन  की  चोरी  करे, ज्यों  हो स्वर्णिम  भोर।

यशुदा   तेरा   लाड़ला,  बहुत बड़ा चितचोर।।


अवगुंठन में   रूप  की, जलती हुई   मशाल।

रूपसि   तेरे   रूप   का, चारों ओर धमाल।।

अवगुंठन में   झाँकता, रूपसि तेरा  रूप।

देख  भ्रमर  दल  मौन  हैं, भले काटती धूप।।


पति - पत्नी अनुकूल   तो, गेह बने  अनुकूल।

सुख  साधन  उर  में बसे, कभी न जाना  भूल।।

राजा  हो अनुकूल तो, जनता करे   विकास।

कर से  चूसे  देश   को, जन के  सँग उपहास।।


मौर्य  वंश   प्रख्यात   हैं,   राजा  वीर अशोक।

मुद्रा पर जिनकी  छपे, लाट  अमर बिन  रोक।।

जहाँ  न  कोई  शोक  हो,कहते उसे अशोक।

नहीं सहज  यह  भाव यों,जग में यही विलोक।।


                एक में सब

न  हो चारुता चित्त में, अवगुंठन  चितचोर।

उर अशोक अनुकूल हो, दृढ़ वैराग्य विभोर।।

शुभमस्तु !


04.03.2025●11.15प०मा०

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मंगलवार, 4 मार्च 2025

बीत गया जो वक्त [नवगीत]

 139/2025

        


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


लगता है कल की ही बातें

बीत गया जो वक्त ।


जैसे कोई चक्र घूमता

चले वक्त की रील

नहीं किसी भी एक बिंदु पर

गाड़ी हुई न कील

फिर भी लगता अब ही बीता

रीत गया जो वक्त।


शिशुपन बचपन यौवन सबका

अलग -अलग है स्वाद

चलती है जब चरखी मन में

आ जाता सब याद

हम ही रहे हारते निशिदिन

जीत गया है वक्त।


छूट गए हैं संगी साथी

मिला नयों का साथ

चलता रहा राह में राही

बदल - बदल कर  पाथ

काम नहीं चलता उसके बिन

मीत हुआ है वक्त।


शुभमस्तु!


04.03.2025●2.45प०मा०

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सब हमजोली बुढ़ा गए हैं [नवगीत]

 138/2025

     

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सब हमजोली बुढ़ा गए हैं

जिनके सँग खेले रँग होली।


कौन कहाँ है नहीं पता है

ठौर ठिकाना कैसे जानें

खेले थे जो गिल्ली डंडा

नहीं रहे वे कैसे मानें

टेसू लेकर दर-दर जाते

गुच्ची पाड़ा कंचा गोली।


चौथापन आया तन-मन में

बचपन नहीं भुला पाया है

चिंतारहित  खेलना खाना

चिंताओं का अब साया है

एक-एक होते हम ग्यारह

बन जाती थी लंबी टोली।


नयन हो गए चार कभी तो

जतलाने में भी  शरमाया

कभी पिटा पीटा यारों को

घर पर आकर नहीं बताया

मंदिर  या भगवान न जाने

नहीं धूप चंदन या रोली।


सात दशक से ऊपर आया

मन में फिर भी वही चाव है

मातु शारदा संग हमारे 

रहती हैं नित शुद्ध भाव है

शब्दों का ही चित्रकार बन

हिंदी जैसी मधुरिम बोली।


शुभमस्तु !


04.03.2025●1.15प०मा०

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ठौर वही है गंगाजल भी [नवगीत]



137/2025

       

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


ठौर  वही  है  गंगाजल भी

क्या अब पापी नहीं तरेंगे?


गोता मारे गिन-गिन सौ-सौ

क्या गंगा वह बान रखेगी

साठ  करोड़  तरे  ले गोते

उनमें मेरा  नाम लिखेगी

न्यायालय के द्वार बंद हैं

क्या हम लादे पाप मरेंगे?


इतना तो निश्चय ही जानो

बिजनिस उनका नहीं चलेगा

ठगी बंद होगी जनता से

कोई जन को नहीं छलेगा

राजनीति के छल -छद्मों से

अब भंडारे नहीं भरेंगे।


नहीं जानते 'शुभम्' मूढ़ तुम

भीड़भाड़ का मोल बड़ा है

राष्ट्र एकता  इसको  कहते

जन लुटने को स्वयं खड़ा है

कुंभ   हो  गए रिक्त देश के

अब न खाक से लाख बनेंगे।


शुभमस्तु !


04.03.2025● 12.15प०मा०

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[1:17 pm, 4/3/2025] DR  BHAGWAT SWAROOP: 138/2025

उदासीन मन का प्रतिबिंबन [गीत]

 136/2025

   

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


उदासीन मन का

प्रतिबिंबन

मुखड़े पर दर्शित है गोरी।


घर परिजन की

व्यथा सालती

मुखड़े का दर्पण दिखलाए

कौन सुने

समझे दुनिया में

मन की व्यथा जिसे बतलाए

रूपवती का रूप

सुमनवत डाली पर 

मुरझाया भोरी।


लगता है 

पतिदेव न आए

कैसे मुख की कली खिलेगी

करे प्रतीक्षा

कब आएँगे

जब तरुवर से वह लिपटेगी

देखेगी प्रियतम

की शोभा

आँख बचाकर चोरी-चोरी।


भीतर के 

सुख-दुख जो सारे

दर्पण में आ जाते यों ही

निर्धनता 

कोई अभाव हो

बिखरा जाते हैं वे त्यों ही

लगता है 

अपने प्रियतम की

आतुर है सुनने को लोरी।


शुभमस्तु!


04.03.2025●6.15आ०मा०

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सच कह दूँ तो [ नवगीत ]

 135/2025

           


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


सच कह दूँ तो बुरा मानते

ये दुनिया के लोग।


झूठों की टकसाल खुली है

भरे हुए अखबार

टीवी पर झूठों की पूजा

जन पर वही सवार

निकल गया जो सत्य जीभ से

बने सत्य को रोग।


माला शॉल प्रतीक चिह्न का

अच्छा है व्यापार

थोड़ा  हाथ बढ़ाओ तुम भी

बन जाएँ वे यार

कहलाओगे काव्य धुरंधर

बिना किसी तप योग।


कुंभ  नहाए  धर्मी-कर्मी

शेष रहे जो लोग

किया न होगा पुण्य एक भी

लगे न उसके जोग

अब पछताने से क्या होगा

करो नहीं अब सोग।


शुभमस्तु !


03.03.2025●12.45 प०मा०

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चैत्र [चौपाई]

 134/2025

                  

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


चैत्र   शुक्ल  की    पड़वा   आई।

ब्रह्मा जी  ने       सृष्टि    बनाई।।

चैत्र    मास    की   पूनम  भाई।

चित्रा  नखत  लगा    सुखदाई।।


हिंदू  प्रथम    मास    शुभकारी।

गाते     वेद     पुराण     पुरारी।।

वर्ष  प्रतिपदा का  दिन   आया।

 हिंदू      वर्षारंभ       सुभाया।।


चैत्र   मास  ऋतुओं   का  राजा।

कहलाए   मधुमास     सुसाजा।।

नवारम्भ     जो     करना   कोई।

शुभदाकारी  हर     तिथि   होई।।


राम जन्म दिन    शुभ    नवराते।

शुभकारी  सब     लोग   मनाते।।

फागुन       गया   चैत्र     हर्षाया।

हिल- मिल हिंदू  मास    मनाया।।


विष्णु   रूप     मत्स्य    अवतारे।

मनु जी के   सब    कष्ट   निवारे।।

जल  की प्रलय हुई   जब   भारी।

प्रथम  रूप ने     विपदा     टारी।।


जैसा   नाम     काम    मधुमासा।

चैत्र मास  तरु लता     विकासा।।

ऋतुओं  का    राजा  शुभ आया।

तरु लतिका  ने  साज   सजाया।।


वट पीपल   सब     हँसते  झूमें।

भँवरे    कलियों के  मुख   चूमें।।

चैत्र  मास   की    चारु    हवाएँ।

नवल सृजन के    द्वार  सजाएँ।।


शुभमस्तु !


03.03.2025●7.45आ०मा०

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डाल-डाल पर [गीतिका]

 133/2025

               


डाल -डाल  पर खिलतीं  कलियाँ।

लगें  मनोहर     मोहक   छवियाँ।।


मर्यादा     में      रहना       सीखें,

कहतीं    गंगा    यमुना    नदियाँ।


लोग  न    झाँकें     ग्रीवा   अपनी,

खोज  रहे  औरों   में     कमियाँ।


मीन -  मेख   करतीं   आपस  में,

जब मिलतीं  आपस  में जनियाँ।


मिला  दूध  में   सरि   का  पानी,

जिसमें निकलीं  चार   मच्छियाँ।


एक     अजूबा      हमने     देखा,

मौन  धरे  कुछ   बैठीं     सखियाँ।


भर - भर    गाड़ी   आलोचक   हैं,

'शुभम्'  उड़ाते   नित्य   धज्जियाँ।



शुभमस्तु !


03.03.2025●6.15आ०मा०

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लोग न झाँकें [सजल]

 132/2025

             


समांत        :इयाँ

पदांत         : अपदांत

मात्रा भार    :16.

मात्रा पतन  :शून्य


डाल -डाल  पर खिलतीं  कलियाँ।

लगें  मनोहर     मोहक   छवियाँ।।


मर्यादा     में      रहना       सीखें।

कहतीं    गंगा    यमुना    नदियाँ।।


लोग  न    झाँकें     ग्रीवा   अपनी।

खोज  रहे  औरों   में     कमियाँ।।


मीन -  मेख   करतीं   आपस  में।

जब मिलतीं  आपस  में जनियाँ।।


मिला  दूध  में   सरि   का  पानी।

जिसमें निकलीं  चार   मच्छियाँ।।


एक     अजूबा      हमने     देखा।

मौन  धरे  कुछ   बैठीं     सखियाँ।।


भर - भर    गाड़ी   आलोचक   हैं।

'शुभम्'  उड़ाते   नित्य   धज्जियाँ।।



शुभमस्तु !


03.03.2025●6.15आ०मा०

                    ●●●

क्या किसको कहना! [गीतिका]

 131/2025

            

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


अपनी धुन में सभी मगन हैं क्या किसको  कहना!

सबकी अपनी लगी लगन हैं क्या किसको कहना!!


सुनता नहीं किसी की कोई  अपनी- अपनी  गैल,

नाच रहा कोई छन -छन  है  क्या किसको कहना!


नेता  कहता    मैं   सर्वोपरि   मैं  ही हूँ   भगवान,

जनता से नित की अनबन है क्या किसको कहना!


कुंभ   नहाया पाप  धुले सब चमका चंदन   भाल,

बड़ी बुद्धि का ये छुटपन है क्या किसको कहना!


पानी  मिला  छापता  रोकड़ लीद मिला  धनिया,

दूध धुलों का यह झुटपन है क्या किसको कहना!


धोखेबाजी   की  बिजनिस  में मस्त रहें   लाला,

हम्मामों  में  वही  नगन  है  क्या किसको कहना!


'शुभम्'  जगतगुरु   देश हमारा सारा देश   महान,

रहा  सत्य से  नित ठनगन है  क्या किसको कहना!


शुभमस्तु!


01.03.2025●2.00प०मा०

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इडली के सँग सौंधी साँभर [गीतिका]

 130/2025

   

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


इडली  के  सँग  सौंधी  साँभर क्या कहने!

पूड़ी - रोटी   एक   बराबर    क्या कहने!!


हाथ-हाथ    में   मोबाइल    नर-नारी   के,

गली -गली   में    ऊँचे   टावर क्या कहने!


आई ए एस    की   करें  पढ़ाई कोचिंग  में,

कंधे  पर   कुछ    धरते  काँवर क्या कहने!


बिना  पढ़ों  के  सँग   में   पी ए  अधिकारी,

नेताजी   की     ऊँची   पावर   क्या कहने!


मात-पिता  की  करें   न   सेवा 'जलकुंभी',

गोता    ले-ले   करें    उजागर   क्या कहने!


मरती   नहीं   हाथ   से  माखी तनते आप,

कहलाते   हैं  स्वयं   गदाधर    क्या कहने!


'शुभम्'   रंग    दुनिया  के   कैसे-कैसे   हैं,

मूढ़  लोग हैं   नित्य   निछावर  क्या कहने!


शुभमस्तु !


01.03.2025● 11.15आ०मा०

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किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...