136/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
उदासीन मन का
प्रतिबिंबन
मुखड़े पर दर्शित है गोरी।
घर परिजन की
व्यथा सालती
मुखड़े का दर्पण दिखलाए
कौन सुने
समझे दुनिया में
मन की व्यथा जिसे बतलाए
रूपवती का रूप
सुमनवत डाली पर
मुरझाया भोरी।
लगता है
पतिदेव न आए
कैसे मुख की कली खिलेगी
करे प्रतीक्षा
कब आएँगे
जब तरुवर से वह लिपटेगी
देखेगी प्रियतम
की शोभा
आँख बचाकर चोरी-चोरी।
भीतर के
सुख-दुख जो सारे
दर्पण में आ जाते यों ही
निर्धनता
कोई अभाव हो
बिखरा जाते हैं वे त्यों ही
लगता है
अपने प्रियतम की
आतुर है सुनने को लोरी।
शुभमस्तु!
04.03.2025●6.15आ०मा०
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