147/2025
[महुआ,मदिर,मृदंग,होली,हुड़दंग]
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
सब में एक
कल्पवृक्ष है गाँव का, महुआ जीवन-अक्ष।
महक रहा है देख लो,कण - कण आज प्रत्यक्ष।।
महुआ गमके चैत्र में, महक रहा भिनसार।
भर-भर झोली बीनते, बालक सब नर- नार।।
गोरी तेरी देह की, मदिर गंध का राज।
पाटल भी समझा नहीं, तेरा सुघर सुसाज।।
मदिर नयन के बाण से, घायल उर का चैन।
उथल-पुथल हो देह में, कटें नहीं दिन-रैन।।
मन मृदंग धम - धम करे,आया मास वसंत।
तिया बाट निशिदिन करे, अजहुँ न लौटे कंत।।
डफ ढोलक बजने लगे, बजते चंग मृदंग।
होली का हुड़दंग है, बरस रहा है रंग।।
होली में सब मग्न हैं, नर - नारी तरु - बेल।
बरसें रंग गुलाल के, खेल रहे हैं खेल।।
फागुन आया झूमता, ले रँग रोली भंग।
होली में तरु नाचते, लिपटी लतिका तंग।
होली में हुड़दंग की , करें न सीमा भंग।
मर्यादा अपनी रखें, बरसे बस रस रंग।।
हुड़दंगी हुड़दंग से, शांति करें नित भंग।
चैन उन्हें मिलता तभी,करें शांति बदरंग।।
एक में सब
होली का हुड़दंग है, बजते मदिर मृदंग।
मह-मह महुआ लूटते,बालक मस्त मलंग।।
शुभमस्तु !
12.03.2025●6.45आ०मा०
●●●
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें