गुरुवार, 6 मार्च 2025

नारी [दोहा]

 141/2025

                   


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


नारी  नर  की  है  प्रसू, नव्य  सृजन की हेतु।

नर-नारी   संयोग  से,  फहरे   नभ में   केतु।।

पुरुष   बिना  नारी नहीं, नारी बिना न  सृष्टि।

वृथा अहं  एकल  सदा, मेघ  बिना क्या वृष्टि।।


नर-नारी  रचना  बड़ी, जटिल  ईश की  सोच।

धन-ऋण का संगम जहाँ, वहीं युगल  में रोच।।

नर-नारी    दो  चक्र  हैं, वाहन  के यह   जान।

नहीं  एक   ही  चक्र  से, चले  न वाहन  मान।।


हर  नारी  की  बुद्धि   के,हैं  विचित्र सब  तत्त्व।

नर  से  सदा   विरोध  ही, नारी का अस्तित्व।।

नारी    के  बहिरंग  में,   खो  जाता जो   व्यक्ति।

प्रथम   भूल    सबसे  बड़ी,  नारी से अनुरक्ति।।


नारी      एक    प्रहेलिका,  रहती  सदा    रहस्य।

जितना   अंतर   भेदिये,  उतनी  गूढ़     रसस्य।।

नारी   के   गुणसूत्र  में,   नर  से  सब   असमान।

लगे   बहुत  सामान्य - सी,  ताने  रहे    कमान।।


नारी  नर  के  क्षेत्र  हैं,  यद्यपि  अति असमान।

चले  न   सीधी  चाल  से,कर में तान   कमान।।

नारी  को  जिसने   कहा, सीधी सरल   समान।

जलकुंभी-सी    छा  गई, ताने  विशद  वितान।।


पुरुषों  ने  समझा  नहीं, बीते   युग- युग  आज।

नारी  सदा   विचित्र  है,  नर  जीवन का साज।।


शुभमस्तु !


05.03.2025●09.45आ०मा०

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...