138/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
सब हमजोली बुढ़ा गए हैं
जिनके सँग खेले रँग होली।
कौन कहाँ है नहीं पता है
ठौर ठिकाना कैसे जानें
खेले थे जो गिल्ली डंडा
नहीं रहे वे कैसे मानें
टेसू लेकर दर-दर जाते
गुच्ची पाड़ा कंचा गोली।
चौथापन आया तन-मन में
बचपन नहीं भुला पाया है
चिंतारहित खेलना खाना
चिंताओं का अब साया है
एक-एक होते हम ग्यारह
बन जाती थी लंबी टोली।
नयन हो गए चार कभी तो
जतलाने में भी शरमाया
कभी पिटा पीटा यारों को
घर पर आकर नहीं बताया
मंदिर या भगवान न जाने
नहीं धूप चंदन या रोली।
सात दशक से ऊपर आया
मन में फिर भी वही चाव है
मातु शारदा संग हमारे
रहती हैं नित शुद्ध भाव है
शब्दों का ही चित्रकार बन
हिंदी जैसी मधुरिम बोली।
शुभमस्तु !
04.03.2025●1.15प०मा०
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