गुरुवार, 6 मार्च 2025

मत उभारो पीर अपनी [नवगीत]

 142/2025

     


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


मत उभारो पीर अपनी

जो हृदय को सालती है।


बहुत विस्तृत ये जहाँ है

फूल भी काँटे हजारों

वेदना का विश्व सागर

दुःख के जलते अँगारों

बोलियाँ भाषा न सम हैं

मनुजता खंगालती है।


आम ही  हो  वस्तु  अपनी

खास को मत व्यक्त करना

आत्म को  लाना  न बाहर

रिक्त का  ही  पात्र   भरना

नारियाँ -  नर पात्र  तेरे

पर निजीपन ज्यादती है।


हर विषय की वस्तु निर्मल

दोष तो भीतर हृदय के

भावना  का खेल है सब

अस्त होती या उदय के

लेखनी कवि की उठे जो

भाव को सम्भालती है।


शुभमस्तु !


05.03.2025● 11.45आ०मा०

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