163/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
अपने- अपने पैमाने से
माप रहे रचनाएँ।
तुमने देखा तुम ही जानो
मेरी मैं ही जानूँ
झूठ कहो मेरी बातों को
क्यों यह मैं सच मानूँ
सबके अनुभव अलग-अलग हैं
देख हमें उबकाएँ।
थोपो मत अपने दर्शन को
लाद रहे हो जबरन
भाव नहीं होते हैं कवि के
किसी अन्य की उतरन
होंगे जमीदार तुम अपने
नहीं हमें समझाएं।
तुमने पाटल कमल सजाए
यहाँ उगी बस सरसों
उगे धतूरे के कुछ पौधे
खेत हमारे बरसों
बहे स्वेद अंगों से निशिदिन
कैसे कर बतलाएँ।
मैं लकीर की करूँ फ़कीरी
मुझसे कभी न होना
झूठे आदर्शों में लिपटा
नहीं रो सकूँ रोना
चाटुकारिता भरी मधुरता
से न हमें बहलाएँ।
शुभमस्तु !
18.03.2025●10.15 आ०मा०
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