गुरुवार, 27 मार्च 2025

अपराध [ कुण्डलिया ]

 182/2025

        

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


                           -1-

करता  है  जो जानकर,जीवन में अपराध।

क्षम्य  नहीं  होता कभी,दंड योग्य निर्बाध।।

दंड    योग्य    निर्बाध,  दंड    देते दंडालय।

मिले कर्म का स्वाद,बुरे का यही फलाशय।।

'शुभम्' बुद्धि से सोच,होश में पर धन हरता।

लेता जो उत्कोच, कर्म अनुचित वह करता।।


                         -2-

अपने  जैसा   जानिए,  सबको  ही  हे  मीत।

नहीं  प्रताड़ित  कीजिए, होता गलत प्रतीत।

होता  गलत   प्रतीत,  यही  अपराध बुरा है।

लगता  अपनी   पीठ ,  वेदना  मूल  छुरा  है।।

'शुभम्' बिना शुभ  काम,  न देखे ऊँचे सपने।

सबमें   रहते  राम, समझ सबको ही  अपने।।


                         -3-

मानव दिखते एक से,बाहर  से अति भद्र।

सत्कर्मों  से  ही बनें,दिव्य करे जग कद्र।

दिव्य  करे  जग कद्र,करें अपराध हजारों।

रहते   काराधीन,   दंड   भुगतें युग चारों।।

'शुभम्' मनुज की देह, किंतु वे होते दानव।

कहीं न उनका गेह, सदा अपराधी मानव।।


                           -4-

चोरी करें  छिनैतियाँ , नर-नारी व्यभिचार।

गबन मिलावट नित्य ही,हैं अपराध अपार।।

हैं अपराध  अपार,झूठ भी उचित न होता।

जल में पय की धार,लीद में धनिया रोता।।

'शुभम्' सदा ही ठगी,जा  रही जनता भोरी।

लाखों चोर  लबार, करें चरितों की चोरी।।


                           -5-

नेता    हो    या  संत के , वसनों में यह   रोग।

जगत व्याप्त जन मात्र में,लगें बड़े अभियोग।।

लगें    बड़े   अभियोग,  बनें अपराध  भयंकर।

पुजते   जनता    मध्य,  बने   वे भोले   शंकर।।

'शुभम्'  न्याय के द्वार, खुले सबको जो  लेता।

शोषण   करके  देश, भले  हो रँगिया   नेता।।


शुभमस्तु !


27.03.2025●8.00प०मा०

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