153/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
ये जीवन रंगों का मेला
कभी उजाला कभी अँधेरा
किसने कौन रंग है पाया
कब किसने क्या-क्या है झेला।
कभी दिवाली होती होली
कभी विजय का पर्व दशहरा
आँगन में बहुरंग रंगोली
कभी एक रँग गहरा हलका।
हाथ किसी के रँग गुलाल है
कोई चर्चित चंदन मानव
कोई ले पिचकारी आया
कोई हिंस्र गिद्ध -सा जीता।
रँग गुलाल सब ही प्रतीक हैं
खुशहाली के मन के मोती
हिना बाँटने से कर रँगते
आवंटक की हँसती ज्योति।
आओ हम भी रँग ही बाँटें
सभी मनाएँ मन से होली
बैर भाव को जला आग में
गले मिलें हर प्रियता लाएँ।
शुभमस्तु !
13.03.2025● 7.45प०मा०
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