मंगलवार, 4 मार्च 2025

बीत गया जो वक्त [नवगीत]

 139/2025

        


©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


लगता है कल की ही बातें

बीत गया जो वक्त ।


जैसे कोई चक्र घूमता

चले वक्त की रील

नहीं किसी भी एक बिंदु पर

गाड़ी हुई न कील

फिर भी लगता अब ही बीता

रीत गया जो वक्त।


शिशुपन बचपन यौवन सबका

अलग -अलग है स्वाद

चलती है जब चरखी मन में

आ जाता सब याद

हम ही रहे हारते निशिदिन

जीत गया है वक्त।


छूट गए हैं संगी साथी

मिला नयों का साथ

चलता रहा राह में राही

बदल - बदल कर  पाथ

काम नहीं चलता उसके बिन

मीत हुआ है वक्त।


शुभमस्तु!


04.03.2025●2.45प०मा०

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