139/2025
©शब्दकार
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'
लगता है कल की ही बातें
बीत गया जो वक्त ।
जैसे कोई चक्र घूमता
चले वक्त की रील
नहीं किसी भी एक बिंदु पर
गाड़ी हुई न कील
फिर भी लगता अब ही बीता
रीत गया जो वक्त।
शिशुपन बचपन यौवन सबका
अलग -अलग है स्वाद
चलती है जब चरखी मन में
आ जाता सब याद
हम ही रहे हारते निशिदिन
जीत गया है वक्त।
छूट गए हैं संगी साथी
मिला नयों का साथ
चलता रहा राह में राही
बदल - बदल कर पाथ
काम नहीं चलता उसके बिन
मीत हुआ है वक्त।
शुभमस्तु!
04.03.2025●2.45प०मा०
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