'रोबर स्काउट लीडर' (RSL)का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए मैं यथा समय केंद्र पर उपस्थित हो गया था। यह प्रशिक्षण केंद्र एक घने जंगल के मध्य सड़क किनारे पर ही सड़क के तल से लगभग 50 फीट की ऊँचाई पर स्थित एक सुरम्य स्थान पर बना हुआ था। जहाँ एक बहुत बड़े से हॉल में हम 51प्रशिक्षणार्थीयों को ठहराया गया था।जो सभी उत्तर प्रदेश के विभिन्न राजकीय और अनुदानित महाविद्यालयों से आए हुए प्रोफ़ेसर थे। इस हॉल में फर्श पर चीड़ के वृक्षों के बड़े -बड़े लगभग 30 -40 फीट लंबे आयताकार शहतीर बिछाए गए थे। चीड़ के शहतीर बिछाने का उद्देश्य कड़ी ठंड से बचाना ही था। वे सब परस्पर सटाकर चिकना बनाकर बिछाए गए थे। उसी फर्श पर हम सभी लोगों के बिस्तर लगाए गए। दो अनुभवी प्रशिक्षकों द्वारा प्रशिक्षण दिया जाना था।
रात्रि विश्राम के पश्चात सुबह 5 बजे से पहले ही दिनचर्या प्रारम्भ हो गई। रेफ्रिजरेटर से भी अधिक ठंडे पानी से सुबह स्नान किया गया,जो वहाँ पर बने हुए एक सीमेंटेड टैंक में भरा हुआ था।पानी का स्पर्श ही देह को शून्य कर देने वाला था। टंकी के पास ही पूरे परिसर में चाय की पंक्तिबद्ध झाड़ियां खड़ी हुई थीं। चुस्की के कुछ वृक्ष भी खड़े हुए परिसर के सौंदर्य की अभिवृद्धि कर रहे थे।अवसर मिलने पर चुस्की के बहुत मीठे फलों का रसास्वादन मैंने किया।सुबह सात बजे तक तैयार होकर मैदान में झंडारोहण, परेड,खेल तथा प्रशिक्षण संबंधी विविध क्रिया कलापों के लिए हमें पहुँचना था। इलाहाबाद के श्री लाल साहब और रानीखेत के श्री उनियाल साहब द्वारा प्रशिक्षण दिया जाने लगा था। उनका व्यवहार बहुत सौम्य औऱ सम्मानजनक था।
मैंने देखा कि विश्व का सर्वोच्च हिमालय पर्वत 100 किलोमीटर से भी अधिक दूरी पर होने के बावजूद ऐसा दिखाई दे रहा था कि सामने कुछ ही दूरी पर हो। प्रातः और सायंकाल हिमालय की शोभा बहुत मनोहारी होती थी। प्रातःकालीन सूर्य की किरणों के प्रभाव से वह सोने जैसा दिखाई दिया। शाम को रुपहला लगा। अपने साथियों की सहायता से अपने साथ ले जाए कैमरे से हिमालय के साथ अपने छायाचित्र भी कैमरे में सुरक्षित किए गए। केंद्र के सामने विस्तृत वन फैला हुआ था। जिसमें अनेक ऊँची पहाड़ियां औऱ खाइयाँ दिखती प्रतीत हो रही थीं। कुछ बादल हमसे भी नीचे यों दिख रहे थे जैसे कोई सफ़ेद खरगोश झाड़ी में बैठा हुआ हो। ये मेघ- खण्ड कुछ ऊपर थे तो कुछ नीचे ।दिन में जंगल में कोई रौनक महसूस नहीं होती थी , लेकिन रात को पहाड़ियों पर दूर -दूर बने हुए घरों में जब रौशनी होती ,तो लगता कि यहाँ भी इंसान रहते हैं।चीड़,सेव ,चुस्की, पुलम आदि के घने पेड़ उस पर्वतीय वातावरण को मोहक बना रहे थे।प्रशिक्षण स्थल के उस प्रांगण में वज्रदंती बूटी के जमीन से चिपके हुए पौधे चारों ओर फैले हुए थे। कुछ घण्टे के प्रशिक्षण के बाद नाश्ता हुआ।नाश्ते के बाद उसी बड़े हॉल में सैद्धांतिक लैक्चर की कक्षाएँ ली गईं। जिनमें प्रश्नोत्तर के द्वारा बहुत कुछ बताया गया। डायरी पर बनाये गए नित्य प्रति के नोट्स को उनसे जंचवाना भी अनिवार्य था । सब कुछ ठीक वैसे ही चल रहा था ,जैसे कालेजों में शिक्षकों द्वारा छात्रों के साथ किया जाता है।
लैक्चर क्लास के बाद भोजन व्यवस्था होती । हम कोई भी पाँच लोग भोजन परोसने का काम करते ।सभी लोग अपनी थाली, कटोरियाँ , गिलास चम्मच लेकर टाट पट्टी पर आ विराजते ।भोजनोपरांत सब अपने -अपने बर्तन धो माँज कर अपने बिस्तर में रख लेते । स्वयं सहायता का यह कार्यक्रम बहुत ही अच्छा लगा। बारी- बारी से पाँच लोग भोजन परोसने का सेवा कार्य करके स्वयं भोजन करते ,तब अन्य भोजन कर चुके कोई भी व्यक्ति उन्हें भोजन परोस देते।दोपहर औऱ शाम को नित्य प्रति की यही भोजनचर्या थी।
हमारे प्रशिक्षक द्वय कभी - कभी दोपहर को भौगोलिक सर्वेक्षण कराने के लिए 6-7 शिक्षकों की टोलियां बना कर जंगल में ले जाते।तब हमें वहाँ के पेड़ ,पौधों और वनस्पतियों को औऱ करीब से देखने औऱ समझने का अवसर मिला।ऊँचे सेव वृक्षों पर जंगली सेव देखने का अवसर प्राप्त किया। अनदेखे, अनपहचाने इन पौधों की जानकारी कुछ जानकारों से ली गई। झाड़ियों में बिच्छू घास खड़ी थी ,जिसे भूल से भी छू लिया जाए तो बिच्छू के दंश जैसा कष्ट होता। यह भी ज्ञात हुआ कि उस ज़हरीली घास के पास पालक जैसी पत्ती की एक और घास भी मिलती है,जिसकी पत्ती को रगड़ देने से जहरीली घास का असर खत्म हो जाता है। सुनहरे खाद्य फंगस पौधे ,जो मशरूम की तरह होते हैं, कहीं कहीं झाड़ियों में नम स्थानों पर मिले। चीड़ के सैकड़ों फीट ऊँचे दरख्तों के बीच जाने पर पाया कि हवन सामग्री में प्रयोग किया जाने वाला छाड़ -छबीला उनके तनों पर उगकर चिपका हुआ है। यहीं नहीं समीपस्थ चट्टानों पर भी उसे देखा गया। यह छाड़ - छबीला ही वह तत्व है , जिसकी सुगंध सारे पर्वतीय वातावरण को महकाती रहती है। हल्द्वानी से बस द्वारा आगे बढ़ने पर यही महक सारे वातावरण को सुगंधातायित किये हुए थी, जिसका रहस्य अब आकर समझ में आया ।
प्रशिक्षण अवधि के बीच एक दिन अल्मोड़ा के प्रसिद्ध देवालयों में देव -देवी दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वहाँ की प्रसिद्ध बाल -मिठाई का भी आनंद लिया । जाते -आते समय मार्ग में देखा कि सन्नाटे भरी सड़कों पर आदमी नाम की चीज नहीं है। हाँ ,जब कभी चलने वाली बसों के उन स्थानों पर जहां से वे सवारियां लेती हैं ,वहाँ कुछ लोग बस की प्रतीक्षा करते हुए अवश्य देखे गए। जंगल के बीच ये कुछ तिराहे -चौराहे थे ,जहां खड़ी होकर सवारियां बस में बैठती थीं।
रात्रि - भोजन के पश्चात 10 बजे तक कैम्प -फायर का आयोजन नित्य के कार्यक्रम का मुख्य अंग था। उस समय सभी लोग गीत, हास्य व्यंग्य, काव्य पाठ आदि से सबका मनोरंजन करते । औऱ पता नहीं चलता कि कब दस बज गए। लेकिन दस बजने पर भी सभी कब सोने वाले थे। उनके हँसी -मजाक , चुट्कुले का कार्यक्रम बिस्तर में रजाई के अंदर से ही चलता रहता औऱ तब तक चलता जब तक सब सो नहीं जाते। सुबह पाँच बजे से पुनः कार्यक्रम अपने नए रँग -रूप में सामने होता। सभी संतुष्ट, आनंदित औऱ प्रमुदित। इस प्रकार एक -एक कर प्रशिक्षण के दिन पूरे हो रहे थे।
🪴 शुभमस्तु !
२५.०४.२०२१◆११.१५
आरोहणम मार्तण्डस्य ।
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