गुरुवार, 15 अप्रैल 2021

बेपेंदी के ये लोटे देखो ! 🥔 [ अतुकान्तिका ]


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✍️ शब्दकार ©

🪑 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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इधर से भी देखा,

उधर से भी देखा,

साकार पाया,

पर समझदानी के

अंदर न आया, 

न आधार कोई

समझ में समाया,

दिखने में इंसान,

न मटका न गागर,

बिना किसी पेंदी का

लुढ़कता उजागर।


डगर से नगर तक,

गाँव  की बस्ती से 

वन - बंजर तक,

उसे मात्र चाहत

एक मात्र वहीं राहत,

जहाँ दिखी कुरसी,

लुढ़कता गया वह ।


कुरसी में लगी है

अदृश्य रहस्य - चुम्बक,

स्वतः खींचती है

उसे अपनी बाहों में,

बसी हुई वह

स्वप्नों में चाहों में,

चल ही पड़ा है

इसलिए उसकी राहों में।


इधर से उधर तक

देख सब रहे  हैं,

लुढ़कते हुए 

बेपेंदी के लोटे,

गाँव से नगर तक,

 पंचायत से पालिका तक,

गिनती की कुर्सियाँ

झपटने के मेले 

सजे हैं,

सबके मज़े हैं।


एक कुर्सी

चार पाये,

खींचने वाले 

चालीस

 इधर - उधर से धाये,

लुढ़कते - पुढक़ते

चहकते  - बहकते,

सब्जबाग दिखलाते,

फुसलाते - मुस्काते,

हथकंडे दिखलाते,

बिना पेंदी के लोटे।


✍️ शुभमस्तु !


१५.०४.२०२१◆७.३० पत नम मार्तण्डस्य।

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