शनिवार, 24 अप्रैल 2021

दबी राख की आग 🤼‍♂️ [ दोहा ]


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✍️ शब्दकार ©

🤷‍♂️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मज़ा  पड़ौसी  ले रहे, जब हो दो   में   रार।

अपनी -अपनी बोलते, सुनें न बात विचार।।


पूर्वाग्रह  से  ग्रसित  हो,जब होती तक़रार।

करें  व्यर्थ  बकवास ही,माने एक न  हार।।


आया  बीच -बचाव को, सुने न उसकी एक।

साबित  करने में लगे,वही श्रेष्ठ   है   नेक।।


बात बढ़ी तक़रार में,इधर - उधर की बात।

दोनों  ही  करने लगे,घात,घात पर  घात।।


मुद्दा  झोंका   भाड़ में,मिली रार  को ओट।

पक्षी - प्रतिपक्षी  जुटे, बढ़ा रहे  हैं  वोट।।


दबी  राख  में आग जो,मिली हवा  भरपूर।

लपटें  दे   जलने   लगी ,रार - नशे  में  चूर।।


तुच्छ  बात पर आग का,होता बम  विस्फोट।

पानी पाहन बन  गया, ढूँढ़ परस्पर खोट।।


वेला  तालाबंद  की, दिए द्वार घर   खोल।

सबके दर  खुलने लगे,किन्तु रहे अनबोल।।


सहन नहीं करना कभी,बोलें बढ़-बढ़ बोल।

जो  कम बोला शब्द भी,घट जाएगा मोल।


हार  न  मानें  रार में,बोलें बढ़ - बढ़  चार।

दर्शक  तो  सब  मौन  हैं,करते दो तक़रार।।


शांति  - भंग कर रात में, ठानी ऐसी    रार।

नींद  पड़ौसी  की खुली, माने एक न हार।।


🪴 शुभमस्तु !


२४.०४.२०२१ ◆ ९.३०आरोहणम मार्तण्डस्य।

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