शनिवार, 24 अप्रैल 2021

 मेरी शीतलाखेत यात्रा 

 (भाग-1)

 [ संस्मरण ]

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 ✍️ लेखक © 

 🏔️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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           बात सन 1991 की है।उस समय मैं राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बीसलपुर पीलीभीत में हिंदी विभाग में रीडर के पद पर सेवारत था।महाविद्यालय की रोबर स्काउट टीम का अधिकारी होने के कारण मुझे शीतलाखेत (अल्मोड़ा) में 'रोबर स्काउट लीडर' के प्रशिक्षण के लिए वहाँ जाना था। 1991 में लोकसभा/विधान सभा के चुनाव के कारण आचार- संहिता लगी हुई थी। अतः मुझे जिलाधिकारी पीलीभीत से अनुमति प्राप्त करने के बाद ही अपनी यात्रा प्रारंभ करनी थी।पीलीभीत जिलाधिकारी के कार्यालय में जाकर यथासमय अनुमति भी ले ली गई। अब मैं उक्त पर्वतीय यात्रा के लिए तैयार था।

           'रोबर स्काउट लीडर' (RSL)के उक्त प्रशिक्षण की अवधि दस दिन की थी। जो 1 जून से 10 जून 1991 तक होनी थी।पर्वतीय यात्रा का मेरा प्रथम अनुभव होने के कारण मैंने स्थानीय अन्य मित्रों से यह जानकारी भी कर ली थी कि वहाँ पर जून के महीने में कैसा मौसम रहता है।तदनुसार मैंने अपनी यूनिफ़ॉर्म के साथ - साथ गर्म कपड़े कम्बल आदि सामग्री सहेज कर साथ में ले ली औऱ यात्रा के लिए चल पड़ा। 

          पहले बीसलपुर से पीलीभीत आगे पीलीभीत से हल्द्वानी तक की यात्रा बस द्वारा पूरी की गई। आगे की यात्रा भी बस द्वारा ही पूरी की जानी थी। हल्द्वानी पर बस स्टैंड पर उतरने के बाद सीधे शीतलाखेत जाने वाली बस में बैठना था। बस में प्रवेश किया तो बस पूरी तरह भरी हुई थी। अंततः यात्रा तो करनी ही थी, इसीलिए उस बस से नहीं उतरा और इस प्रतीक्षा में कि कहीं कोई सीट मिल जाए, खड़ा हो गया। सामान को किसी तरह एक बर्थ के ऊपर की जाली पर ठूँस दिया ।मैंने अनुभव किया कि कोई भी पर्वतीय यात्री किसी मैदानी सवारी को अपने साथ एडजस्ट करने को तैयार नहीं था। बस आगे बढ़ी ,तो यह भी देखा कि रास्ते में यदि कोई स्थानीय सवारी आती तो उसे तुरंत स्वयं खिसककर अपने साथ बिठा लेते ,लेकिन मैं चूँकि मैदानी क्षेत्र से आया था इसलिए किसी के हृदय में मेरे प्रति कोई सद्भाव नहीं था। सब ऐसे घूर कर देख रहे थे, जैसे बाबरों के गाँव में ऊँट घुस आया हो। मेरी इस प्रथम पर्वतीय यात्रा में यह अनुभव हुआ कि वहाँ पर पर्वत मैदान का भेदभाव उनकी संकीर्णता को स्वतः उभार कर बाहर करते हुए मानो कह रहा हो कि हम पर्वत के लोग तुम मैदानियों से घृणा करते हैं।इसके विपरीत उत्तर प्रदेश के मैदानी क्षेत्र में देश का ही नहीं ,विदेश का व्यक्ति भी आ जाए तो उसका सहर्ष स्वागत किया जाता है। बस कुछ औऱ आगे बढ़ी , कुछ नई सवारियां चढ़ीं ,कुछ उतर भी गईं । तो मैंने बिना किसी की कृपा को प्राप्त किए हुए एक सीट पर अपनी जमीदारी कायम कर ही ली औऱ अधिकार पूर्वक सीटासीन हो गया। 

          जैसे -जैसे बस ऊँचाई की ओर बढ़ी,मैंने पाया कि सड़क के दोनों ओर चीड़ के ऊँचे -ऊँचे दरख़्त खड़े हुए हैं। सारा वातावरण जंगल की हरियाली से सुरम्य हो रहा है औऱ एक अलौकिक सुगंध व्याप्त हो रही है।संभवतः इसीलिए इसे देवभूमि कहा जाता है। पर देवभूमि का वासी इतना संकीर्ण ! अफ़सोस!! यह भाव मेरे मन के कोने - कोने में निरंतर खटकता रहा।क्या इसी तरह हम राष्ट्रीय एकता स्थापित करना चाहते हैं? हमारे देश की अखण्डता का सपना क्या ऐसे ही नागरिकों से पूरा होने वाला है? 

           आगे बढ़ने पर मेरे नाक और कानों में ऐसा लगा कि वे बन्द होने लगे हैं ,मानो उनमें रुई भर दी गई हो।यह ऊँचाई पर वायु का दबाव कम होने का प्रभाव था। मेरे सिर के ऊपर बने स्थान में किसी व्यक्ति की दूध की टंकी रखी हुई थी ,जो बराबर छलकती हुई मुझे दुग्ध स्नान करा रही थी। आगे चलने पर बर्फ- सी शीतल बारिश ने मुझे औऱ अधिक ठंडा कर दिया। खिड़की से बारिश की तेज ठंडी बूँदें औऱ ऊपर से दुग्ध की वर्षा मेरा स्वागत कर रही थीं।यह सिलसिला शीतलाखेत पहुँचने तक नहीं रुका, नहीं थमा। 

           पर्वतीय मार्गों पर कभी बहुत गहरी ढलान आती तो कभी ऊँची चढ़ाई। सड़क के एक ओर गगनचुंबी ऊँची पर्वत श्रृंखलाएं तो दूसरी ओर सैकड़ों फीट नीची गहरी खाइयाँ।अनेक मोड़ों पर उतरती- चढ़ती बस लगभग 15 किमी. प्रति घण्टे की गति से आगे बढ़ती रही। यदि किसी मोड़ पर कोई बस आती हुई दिखाई देती तो ऊपर वाली बस को वहीं रोककर उसे आगे चले जाने का मार्ग देना प्रत्येक बस चालक की प्राथमिकता थी। सुनसान मार्गों पर चढ़ती-उतरती अपनी मंजिल तय करती बस पहाड़ी वादियों में चलती रही। हरे -भरे जंगलों से आबाद यह पर्वतीय क्षेत्र बहुत ही रमणीय औऱ शांत अनुभव हुआ। नीचे की ओर झाँकने पर हृदय में भय की कँपकँपी देती हुई लहर-सी दौड़ जाती।

            रास्ते में 'गरम पानी' नामक स्थान पर बस रुकी ,तो फ़ालसेव जैसे बैंजनी रंग के फलों का रसास्वादन भी किया। इन्हें वहाँ की भाषा में 'काफ़ल' कहा जाता है। ये फ़ल फेरी वालों द्वारा हरे - हरे पत्तों के दोनों में रखकर बेचे जा रहे थे।भुवाली,रानीखेत ,अल्मोड़ा होती हुई बस शाम लगभग 5 बजे शीतलाखेत हिल स्टेशन के प्रशिक्षण केंद्र पर पहुँच गई थी। जब बस से नीचे उतर कर आया तो निरंतर दूध औऱ बारिश के पानी से भीगने के कारण मेरे दाँत बंद हो गए थे।आवाज नहीं निकल पा रही थी। जिस किसी तरह वहाँ पहले से ही आए हुए मित्रों की मदद से सामान केंद्र में रखवाया गया औऱ लगभग पंद्रह मिनट बाद मैं बोल पाने की स्थिति में आ सका।इस प्रकार प्रशिक्षण का पहला दिन इस पर्वतीय यात्रा को समर्पित हुआ। इस समय मैं समुद्र तल से 1900 मीटर की ऊँचाई पर शीतलाखेत हिल - स्टेशन पर खड़ा था। 

 🪴 शुभमस्तु !

  २४.०४.२०२१◆१.३० पतनम मार्तण्डस्य ।

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