रविवार, 18 अप्रैल 2021

लोकतंत्र का मखौल 🚨 [ दोहा -ग़ज़ल ]

 

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🚘 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

प्रत्याशी   घर  बैठकर, मँगवाती  हैं   वोट।

पति,देवर नित जा रहे,रख पत्नी को ओट।।


जनता ने देखी नहीं, जिसकी सूरत  आज,

पति,प्रधान के खा रहे,चिलगोजा अखरोट।


ख़ुद प्रधान के नाम के,'दसखत'  करता नाथ,

मनमाने   दरबार   में, छाप  रहे     हैं   नोट।


जनपदअधिकारी करें,जब बैठक निज हाल

सीना  ताने    बैठते,  पति जी पहने   कोट।


पूछ  रहे  पतिदेव से, क्या तुम हो  परधान?

ममता जी तुमसे कहें,मत मुस्काओ होट?


परदे में परधान जी,बाहर 'पति  परधान',

चूल्हे  पर  बैठी  हुईं, बना  रही  हैं  रोट।


लोकतंत्र  का  देख लें , कैसा बना  मखौल,

नोट  कमाने  के लिए ,लगा रहे  हैं  चोट।


🪴 शुभमस्तु !


१८.०४.२०२१◆७.००पतनम मार्तण्डस्य।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...