रविवार, 18 अप्रैल 2021

घूँघट में ' परधान ' [ दोहा - ग़ज़ल ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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पर धन पर 'पर धान' का, सजता है दरबार।

बालू  से   सड़कें   बना, होती राम   जुहार।।


मतमंगा  मत  माँगता,  छू जनता  के  पैर,

जीत नाचता पी सुरा, डलवा कर  गलहार।


दावत   मुर्गा माँस की,बोतल के   सँग नाच,

नियम  धरे हैं  ताक पर,नहीं शेष  आचार।।


कितने  पति परधान के,समझ न आए बात!

यह 'प्रधानपति 'हैं अगर,क्या हैं वे दो-चार?


धन ऊपर से जो मिले, उसका मालिक एक,

होता  बंदर  - बाँट  जब, बेचारा    लाचार।


पढ़ी  न अक्षर  एक  भी,घूँघट की    सरकार,

छपा  अँगूठा वाम कर,चलता पति - दरबार।


'शुभम'ग्राम-सरकार का,मायापति  परधान,

घूँघट  में  बैठी  सजी, डाल स्वर्ण   का  हार।


🪴 शुभमस्तु !


१८.०४.२०२१◆४.१५पतनम मार्तण्डस्य।


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