◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
✍️ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆
मैं माटी हूँ मैं मटका हूँ।
कर्त्ता का नन्हा झटका हूँ।।
उस प्रजापिता ने जन्म दिया।
माँ की धरती को घना किया।
अपनी माँ का मैं छुटका हूँ।
मैं माटी हूँ मैं मटका हूँ।।
माटी का होता रूप नहीं।
जो भी गढ़ दें वह सभी सही।
ऊपर से नीचे पटका हूँ।
मैं माटी हूँ मैं मटका हूँ।।
मेरी कोई पहचान नहीं।
था वहाँ आज अब और कहीं।
तीनों लोकों में भटका हूँ।
मैं माटी हूँ मैं मटका हूँ।।
कर्त्ता ही मुझमें भरता है।
मेरे हित में सब करता है।
वह कहता मैं घट-घट का हूँ।
मैं माटी हूँ मैं मटका हूँ।।
माटी के रूप अनेक बने।
मानव, पशु, पक्षी ,कीट घने।
नित पंच तत्त्व के पुट का हूँ।
मैं माटी हूँ मैं मटका हूँ।।
मैं वृक्ष, लता, हूँ फूल कभी।
मैं बीज और फ़ल शूल कभी।
मैं यौनि - यौनि में भटका हूँ।
मैं माटी हूँ मैं मटका हूँ।।
मैं अंश मात्र तू अंशी है।
नर तव मधुस्वर की वंशी है।
तू नायक मैं बस नट-सा हूँ।
मैं माटी हूँ मैं मटका हूँ।।
🪴 शुभमस्तु !
३०.०४.२०२१◆२.००पतनम मार्तण्डस्य।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें