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✍️ शब्दकार ©
🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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लोग कहते हैं
टिकी है
विश्वास पर दुनिया,
जैसा दृष्टा
वैसी दृष्टि,
दिखाई देती है
वैसी ही पूर्ण सृष्टि।
विश्वास क्या है?
विश्वास है :
मात्र एक शक्ति,
जो जैसा नहीं है
वैसा ही मानने की
साहसिक शक्ति ।
जिह्वा पर हैं राम
पर प्राणों में नहीं,
अधरों की तोता- रटन्त
पर हृदयस्थ नहीं,
मंदिर में हैं राम
मन में नहीं,
ऊपर -ऊपर
राम ही राम
पर भीतर कुछ नहीं!
आँखों पर चढ़े हैं
दूसरों के मज़बूत चश्मे,
खा - खाकर कसमें,
अनेक चश्मों की भरमार,
सब एक के ऊपर
एक न एक सवार,
जातिवाद के,
वर्णवाद के,
शास्त्रों के,
सिद्धांतों के,
हिन्दू मुसलमान के,
बौद्ध क्रिस्तान के,
गीता कुरान के,
चश्मे पर चश्मे हैं,
नहीं अपने कुछ
वश में हैं,
नहीं हैं नग्न
तुम्हारे नयन,
किसी और की भाषा
उसी के वचन!
लगाया गया है
वासना का प्रक्षेपण - यंत्र,
बना रखा है
अपने परितः
एक मिथ्या तंत्र,
जो दिखा नहीं पाता
परमात्मा औऱ संसार!
किया कभी क्या
इतना भी विचार?
परमात्मा औऱ जगत
सब है एक ही,
पर दिखाई दे रहे हैं
तुम्हें अनेक ही,
देखना परमात्मा
ग़लत ढंग से
संसार है,
देखते हैं सही ढंग से
तो वही है परमात्मा।
जैसे को वैसा ही
दिखता है परमात्मा,
हमारी दृष्टि - चूक
हमें दिखाती है संसार,
यह दृष्टि की
मानवीय भ्रांति है,
इसीलिए तो
'शुभम' भारी अशांति है।
🪴 शुभमस्तु !
०१.०४.२०२१ ◆२.००पतनम मार्तण्डस्य।
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