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✍️ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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मौसम चपल चुनाव का,बना रहा है अंध।
नैतिकता खूँटी बँधी, टूट गए सब बंध।।
मुर्गा,नोट, शराब का, चला रहे हैं दौर।
खाया पीया मुफ़्त का,फिर भाए क्यों कौर।।
दावत जिसकी श्रेष्ठतम, देंगे उसको वोट।
मुर्गा और शराब सँग,बाँट रहे हैं नोट ।।
सबका ही स्वीकार लो,मुर्गा, नोट, शराब ।
जो मनभाये दो उसे,कहो न उसे खराब।।
सबको पैसा चाहिए, अतः बाँटते दाम।
धर्म भाड़ में झोंक कर,सफ़ल चाहते काम।।
रंजिश के बो बीज नित, फैलाते जन बैर।
कैसा ये जनतंत्र है,उपजाता है गैर।।
दावत सबकी खा रहे,सबसे 'हाँ' की टेक।
दस में नौ मुँह ताकते, बने सभी के नेक ।।
गर्म सियासत गाँव की,फैला भ्रष्टाचार।
भावी चोरी के लिए, खुला दान - दरबार।।
नैतिकता सत्कर्म की , ढोते लाश प्रधान।
सुरा,चिकन वितरण चला, मेरा देश महान।।
लोकतंत्र की आरसी, देखो जाकर ग्राम।
बोतल में मत नाचते, मुर्गा करे प्रनाम।।
राजनीति की महक से,गंधायित परिवेश।
पहले देखो गाँव में ,तब जाना तुम देश।।
🪴 शुभमस्तु !
०५.०४.२०२१◆९.३० पतनम मार्तण्डस्य।
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