शनिवार, 3 अप्रैल 2021

कहाँ नहीं हूँ मैं ? [ व्यंग्य ]

  

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 ✍️ लेखक © 

 🙈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                 मेरी तो आज बल्ले !बल्ले !! है।यदि मेरी उपमा परमात्मा से की जाए ,तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।लोग कहते हैं कि परमात्मा जड़ ,चेतन के कण -कण में व्याप्त है।उसी प्रकार जड़ में नहीं, तो चेतन में सब कहीं भी मैं विद्यमान हूँ। देखा जाय तो परमात्मा का कोई लिंग नहीं है, न स्त्री न पुरुष और स्त्री भी पुरुष भी। जैसी जिसकी दृष्टि वैसी उसकी सृष्टि । उसी प्रकार मेरा भी कोई लिंग नहीं है।कहने को तो लोग स्त्रीलिंग ही बोलते ,लिखते हैं।लिंग से कोई मतलब विशेष नहीं है। क्योंकि मुझे किसी से कोई शादी नहीं करनी है ।यदि करनी भी है ,तो वह तो बहुत पहले ही हो चुकी है। 


              असल मुद्दे की बात ये है कि मैं वहाँ भी घुस जाती हूँ ,जहाँ मेरी कोई ज़रूरत भी नहीं है।जैसे धर्म ,धार्मिक संस्थान,शिक्षा ,शिक्षा के केंद्र, शिक्षा के आलय,शिक्षा के दाता लोग , शिक्षा को लेने वाले, सरकारी कार्यालय, गाँव, कस्बे, नगर ,महानगर, बाज़ार, दूकान सबमें मेरा निवास है। आज के युग में तो मैं भ्रष्टाचार की तरह निरंतर फल -फूल रही हूँ। बल्कि कहना होगा कि मेरा और भ्रष्टाचार का चोली दामन का साथ है।भ्रष्टाचार तो मेरे साथ इस प्रकार काम करता है ,जैसे आलू ,गेहूँ की फसलों में यूरिया की खाद उन्हें पोषण प्रदान कर उन्हें हरा भरा बनाती है।जितनी उत्तम कोटि की खाद मेरे साथ काम करती है ,उतनी अच्छी कहीं भी नहीं मिलती।


          मेरे अनुयायी दूध की तरह धुले हुए रहते हैं। वैसे पर्दे के अंदर ऐसा दुनिया का कोई भी कर्म नहीं है ,जो ये न करते हों।गबन, अपहरण ,चोरी , भृष्ट आचरण,बलात्कार, राहजनी, उत्कोच ,दूसरों पर कीचड़ उछालने की क्रिया, पर निंदा , आत्म स्तुति, 'पर - पंख कर्तन कला'    ऐसे अनेक गुण हैं,जो हमारी खूबियों में चार नहीं चौदह चाँद लगाते हैं।

        मेरे अनुयायियों में एक विशेष बात यह भी होती है, कि इनमें शर्म, हया ,लज्जा, नाम की कोई चीज लेशमात्र भी नहीं पाई जाती।वे इस कहावत के पदचिह्नों पर चलते हुए अग्रसर होते हैं: 'जिसने की शर्म ,उसके फूटे कर्म ।जिसने की बेशर्माई ,उसने खाई दूध मलाई।' वे लोग औरों को भी बेशर्म बनने की ट्रेनिंग देते हैं और अपने जैसा बनाने के लिए कुछ चमचा नाम के जीभ भी पालते हैं।कुछ लोग उन्हें गुर्गा भी कहते हैं।ये चमचे औऱ गुर्गे ही हैं ,जो मेरा महत्व बढ़ाते रहते हैं। यदि ये न हों तो मेरा तो बेड़ा ही गर्क हो जाए ! मेरे प्रचारक ,प्रसारक और विस्तारक ये चमचे ही ही हैं। चमचे की यह विशेषता होती है कि वह इसके पालक भगौनों से सदा संतुष्ट रहता है।कभी टुकड़ों पर पलने वाले चमचे मलाई मार - मारकर   खाते हैं।कभी  अंगूर  की  बेटी  की  बाँहों  में   झूमते औऱ झूलते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। जब उनके पालक सोना बनाते हैं , नोटों के गद्दों पर शयन करते हैं तो उन्हें भी चाँदी की चमच्च में चाटने को मिल ही जाता है। चमचों से ही पालकों की पूँछ लम्बी होती है। जिसकी जितनी लंबी पूँछ, वह उतना ही बड़ा पालक। पूँछ से आप ये नहीं समझ लें कि वे कोई चौपाये पशु हैं। वे पशु तो नहीं हैं, परन्तु उनसे भी कई कदम आगे ही हैं।

 

         मज़ेदार बात यह भी है कि मुझे हर कोई बुरा ही बताता है। पर मुझे सभी गले से लगाना पसंद करते हैं। 'मन- मन भावे मुड़ी हिलावे '- कहावत कोई यों ही नहीं बन गई। ये विरोधाभास कुछ विचित्र प्रकार ही है न! आज के जमाने में किसी का कोई काम मेरे सहारे के बिना होता ही नहीं । परीक्षा में नम्बर बढ़वाने हों, फर्जी डिग्री लेनी हो, नौकरी लगवानी हो, किसी के ऊपर कोई केस लगवाना हो , अपना या दुश्मन का ट्रांसफर करवाना हो ,अच्छे अधिकारी को हटवाकर कहीं औऱ भिजवाना हो,मिलावट खोरों को बचाना हो, ईमानदार लोगों को फँसवा कर किसी महा भ्रष्टाधिपति को लाना हो,हारते हुए प्रत्याशी को जितवाना हो , बिना परीक्षा दिए 98%प्रतिशत अंक बरसाने हों,09 को 90 और 19 को 91 करवाना हो ,तो ये सब मेरे बाएँ हाथ का चमत्कार है। 

     

               मेरी खूबियों की कोई सूची नहीं बनाई जा सकती , बल्कि किसी महाकवि को महाकाव्य और उपन्यासकार को उपन्यास ही लिखना होगा ।अब तो आप पहचान ही गए होंगे कि मैं कौन हूँ। यदि नहीं समझे तो मुझे बस इतना ही कहना शेष है कि समझने वाले समझ गए हैं, न समझें वे अनाड़ी हैं। 


 🪴 शुभमस्तु ! 


 ०३.०४.२०२१◆८.४५पतनम मार्तण्डस्य।

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