शनिवार, 24 अप्रैल 2021

धर्मभीरु की लूट 🪘 [ दोहा ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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अपने- अपने कर्म का,बहुत बड़ा अभिमान।

फ़ल खा नर सुधरा नहीं, भरता ऊँची तान।।


भले - बुरे  के  भेद  की,है नर को  पहचान।

कौन  उसे  है  देखता,  कहीं नहीं  भगवान।।


झूठ,ग़बन, चोरी, हनन,मन में बुरे विचार।

सगे सखा नर के सभी,जीवन के आधार।।


लंबा  टीका भाल पर,तन पर चीवर पीत।

पर- नारी को  देखकर,बजता उर-संगीत।।


व्यास -पीठ पर बैठकर,पढ़ता कथा पुराण।

देखी बाला कामिनी, चले नयन के  बाण।।


महाभागवत  हो  गई,   नौटंकी  का  खेल।

हरमुनिया ढोलक बजी,चली नोट की रेल।।


नियम नहीं पालन करे,देता पर  - उपदेश।

तिलक छाप तन पर सजे,बढ़ा लिए हैं केश।


घर -  घर से  लाओ सभी,गेहूँ, चावल,दाल।

धन भी कन्यादान में,भागवतों का   हाल।।


बँधवा सिर पर रजत का,मुकुट महा विद्वान।

महिमा नित बतला रहा,करे मनुज धन दान।


सात दिवस बाँची कथा,चले लौट निज धाम।

लाद गठरियाँ  दान की,देखी छाँव न  घाम।।


धर्मभीरु  को  लूटकर,  बना और   धर्मांध।

'शुभम'कथावाचक चले, करके वर्ष -प्रबंध।।


🪴 शुभमस्तु !


२३.०४.२०२१◆५.००पतनम मार्तण्डस्य।

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