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✍️ शब्दकार ©
🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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घाट - घाट का पानी पीता,
फिर भी मानव प्यासा है।
कैसे प्यास बुझे पौधों की,
प्यासा ऋषि दुर्वासा है।।
दुष्यंतों को याद न आती,
प्रेयसि भूल गए पथ में।
राजकाज की मर्यादाएँ,
टूट रही हैं जन रथ में।।
अँधियारा छा रहा राह में,
शेष न तनिक उजासा है।
घाट - घाट का पानी पीता,
फिर भी मानव प्यासा है।।
झोली फैला शहर चल दिया,
गाँव देख मुस्काता है।
जादू यहाँ नहीं चल पाए,
तुझे गाँव कब भाता है ??
गेहूँ, सब्जी , घी , तेलों को,
देता गाँव सुवासा है।
घाट - घाट का पानी पीता,
फिर भी मानव प्यासा है।।
कोयल की बोली सुनने को,
जाना है अमराई में।
पीली सरसों जहाँ महकती,
आना उस पुरवाई में।।
गोबर के उपलों की समिधा,
गो माता से आशा है।
घाट - घाट का पानी पीता,
फिर भी मानव प्यासा है।।
पनिहारिन क्या करें कूप पर,
सूख गया भू का पानी।
दोहन कर सबमर्सीबल से,
याद आ रही अब नानी।।
सूने - सूने घाट पड़े हैं,
चारों ओर निराशा है।।
घाट - घाट का पानी पीता,
फिर भी मानव प्यासा है।।
जहरों से सिंचतीं हैं फसलें,
जहर खा रहे खिला रहे।
पानी में भी घोल जहर को,
पीते सबको पिला रहे।।
सारा देश भाड़ में जाए,
मन में यही खुलासा है।
घाट - घाट का पानी पीता,
फिर भी मानव प्यासा है।।
🪴 शुभमस्तु !
२३.०४.२०२१◆८.००
पतनम मार्तण्डस्य।
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