शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

ज़िंदगी की रेत पर 🛖 [ अतुकान्तिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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ज़िंदगी की तप्त रेत,

कहीं धूसर कहीं सेत,

कहीं ऊँची कहीं नीची,

कहीं उभरी कहीं तीख़ी,

न एकतार न एकसार,

ज़िंदगी का व्यापक प्रसार,

कभी चढ़ाव कभी उतार,

विविध प्रकार।


चलना ही है,

इन दो पैरों को 

जलना ही है,

छोड़ते हुए पदचिह्न,

आकार प्रकार भिन्न - भिन्न,

कभी प्रसन्न कभी मन खिन्न,

रुकना भी नहीं,

पीछे मुड़कर देखना भी नहीं,

चलते चले जाना

अनिश्चित भविष्य की ओर,

कब हो दिवस कब रात

कब साँझ कब हो भोर,

सब कुछ अनिश्चय के गर्भ,

बिना जाने कोई संदर्भ,

चलते चले जाना है,

बढ़ते चले जाना है!


क्या पता कब आएगा

हवा का एक झोंका,

मिटा देगा पदचिह्न तेरे,

अतीत बन जाएगा

एक मधुर याद,

आज से बेहतर,

सोचने के लिए  यही कि

आज से कल ही बेहतर था,

पर मैं समय को

पकड़ नहीं सकता,

उसे बाँध कर

 रख नहीं सकता,

उसे तो गुज़र ही जाना है,

हमें उसकी स्मृति में

बार-बार पछताना है,

काश ऐसा होता,

तो मेरा आज सुनहरा होता !


दूर से दिखाई दे रहे हैं

ऊँचे -ऊँचे रेत के टीले,

उनकी ओर बढ़ते हुए

आदमी आशावान हो

कुछ और सुकून से जी ले,

पर कहाँ ,

दिखाई दे गई एक मृगमरीचिका,

पहुँचे जो निकट

तो वहाँ जल ही नहीं था,

वही रेत ही रेत,

कहीं धूसर कहीं सेत,

रह गई प्यासी ज़िंदगी,

किसी ने की वन्दगी,

तो कोई करता रहा दरिंदगी,

नहीं हुआ कहीं कोई तृप्त,

बस रह गई है रेत

तप्त !तप्त!!और तप्त!!!


फिर भी 'शुभम' 

ज़िंदगी के मार्ग पर

बढ़ना निरंतर बढ़ना ही

ज़िंदगी है,

यही तो उस परमात्मा की

सच्ची वन्दगी है,

क्योंकि यह देह मन बुद्धि

उस कर्ता की 

अनमोल कृति है!

उसके प्रति हमें

नतमस्तक होना है,

उसका सदा - सदा

हमें कृतज्ञ रहना है,

कर्मरत रहना है।


🪴 शुभमस्तु !


१६.०४.२०२१◆११.४५आरोहणम मार्तण्डस्य।

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