मंगलवार, 28 दिसंबर 2021

स्वादाचार - संहिता 🍓 [ व्यंग्य ]

  


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 ✍️ व्यंग्यकार ©

 🍓 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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       मानव के स्वाद का संसार निराला है।उसने जाने कहाँ- कहाँ स्वाद का शोध कर डाला है। उसने संसार की हर वस्तु में स्वाद खोजा है।स्वाद को आप इतना सहज  मत समझिए कि केवल अपने खाद्य -पदार्थों में ही 'स्वाद' है। जी नहीं, हमारी सामान्य सोच से भी बहुत ऊपर उसका आस्वाद है।

     जब 'स्वाद' की बात चली है ,तो रसना के रसीले स्वाद की ही बात कर लें।प्रकृति ने अपनी ओर से षटरसों की सृष्टि कर दी। किंतु मानव तो उससे भी ऊँचे पर जा बैठा और स्वादों के अनंत आकाश में उड़ने लगा।सामान्यतः गुड़ मीठा, आँवला खट्टा, लवण नमकीन, मिर्च तिक्त, नीम कड़ुआ औऱ हरड़ को कषाय(कसैला) माना जाता है। किंतु मानव ने मीठा,खट्टा, नमकीन और तिक्त के मिश्रण से एक ऐसा नया स्वाद बना लिया कि चटनी को चाटते रहिए।अंतिम बिंदु तक चाटने पर भी तृप्ति नहीं होगी।भले दौना फट जाए! 

       एक पदार्थ में कितने रस भरे पड़े हैं कि समझ में नहीं आता कि क्या नाम दें।लहसुन में एक अम्ल रस को छोड़कर पाँच -पाँच रस भरे हैं। किंतु उसका मुख्य रस तिक्त होने के कारण वह तिक्त ही कहलाता है।शेष अनुरस ही हैं।मुख्य रस तिक्त है।इसी प्रकार शहद खाते समय मीठा लगता है औऱ अंत में कषाय स्वाद देकर रसना को कसैला बना डालता है। पर दुनिया तो उसी को जानती है ,जो सामने आता है ,छिपे हुए का नाम नहीं होता। बेचारा छिपा हुआ! उसका कोई भी न हुआ !


    कोई किसी स्वाद को लेने में मगन है तो कोई किसी औऱ के। किसी को मदिरा अमृत तुल्य है ,तो दूध विष तुल्य।कुछ स्वाद ऐसे हैं ;जो लेने पर कुछ औऱ औऱ मध्य में कुछ औऱ और अंत में कुछ औऱ ही हो जाते हैं। जैसे आँवला प्रारंभ में खट्टा ,मध्य में कसैला औऱ अंत में मधुर स्वाद देता है।शहद क्रमशः मधुर, रूक्ष औऱ कसैला हो जाता है। इसी प्रकार अन्य पदार्थों की स्थिति है। भोज्य पदार्थों के अतिरिक्त संसार में अनेक स्वादाचारी हैं। किसी को चोरी में , किसी को लड़ने -भिड़ने में, किसी को नारी में, किसी को सियासत में स्वाद मिलता है। स्वाद की लत उसे उसका आदी बना देती है।

      कुछ स्वाद अंत तक एक समान रह सकते हैं, किंतु अधिकांश स्वाद अपने ग्राफ- पतन पर पतित ही हो जाते हैं। समस्त अनुभवी नर -नारी यह भलीभाँति जानते हैं कि विषयानंद का स्वाद एक सौ डिग्री से सीधे शून्य पर टिक जाता है और विरक्ति के भाड़ में झोंक देता है।रुचि में कोई रुचि नहीं रहती।इसलिए यहाँ विस्तार में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। मदिर- मत्त का स्वाद निरंतर उच्च स्तर पर जाकर उस लोक की सैर कराने लगता है ,जहाँ से वह नीचे ही नहीं उतरना चाहता, उतरी तो औऱ दे, फिर और दे , बस देता ही रह। औऱ कुछ मत कह।बस मुझे सह। उन लोगों को इसी में स्वाद आ रहा है कि वे उनको रोज मधुशाला में सह रहे हैं।

     कुछ स्वाद अजर -अमर हैं। जहाँ जाकर वह लौटना ही नहीं चाहता।कुर्सी का स्वाद ऐसा ही अविस्मरणीय स्वाद है, उसके लिए कोई आचार - संहिता नहीं है। यौवन तो यौवन बूढ़ा महायौवन को प्राप्त हो जाता है। उसे कुर्सी के स्वाद का लालच यह तक भुला देता है कि अकर्म, कुकर्म ,सुकर्म का भेद भूलकर वह परम हंस के दर्जे को हासिल कर इस लोक में ही स्वर्गवासी होने का सुख हासिल कर लेता है। और तो औऱ उसके आसपास मंडराने वाले मक्खी ,मच्छर, भुनगे, भौंरे, रंग -बिरंगी तितलियां सब उसी स्वाद में लीन हो खो से जाते हैं। 

            पैसे  के  स्वाद  पर  तो  सारी  दुनिया  ही  टिकी है। उसे क्या बताना, जताना ।यहाँ तक कि   बड़े - बड़े मठाधीश,धर्माधीश, आश्रमाधीश, अरबों- खरबों  के  स्वाद  के साथ  - साथ  कितने  स्वादों  के   शहंशाह    बने स्वादाधिपति बने पुज रहे हैं। संसार की 'स्वादाचार- संहिता' एक विशेष शोध का विषय है। इस विषय पर शोध करने के लिए एक विश्वविद्यालय ही खोल दिया जाना चाहिए।जिसमें स्वादाधिपतियों को उसका कुलाधिपति, कुलपति और रजिस्ट्रार बना कर भेज देना उत्तम होगा। शोध - निर्देशक तो गली - गली में घूमते - टहलते मिल ही जायेंगे।

 🪴शुभमस्तु ! 

 २८.१२.२०२१◆५.३० पतनम मार्तण्डस्य।

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