[थरथर,मार्गशीर्ष, कंबल, ठंड,ठिठुर ]
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✍️ शब्दकार ©
🗻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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💦 सब में एक 💦
थरथर काँपे देह प्रिय,लगा पूस का मास।
कब आओगे गेह में, मेरी सेज उदास।।
थरथर कंपित शीत में,गायें भैंसें ढोर।
गलगल गौरैया कँपे, काँपें मानव मोर।।
मार्गशीर्ष हेमंत ऋतु,शीतल अवनि समीर।
प्रोषितपतिका जोहती,बाट न उर में धीर।।
मार्गशीर्ष ने शीत के,खोले मार्ग अनेक।
शीतल भू जल वायु नभ,उष्ण वह्नि है एक।।
कंबल का संबल नहीं, कंपित वन में शेर।
मछली जलक्रीड़ा मगन, लेती शीत न घेर।।
मधुर गुलाबी शीत में, कंबल का आनंद।
नर नारी को सौंपता,ज्यों अलि को मकरंद।।
गर्म दौड़ते रक्त में, लगती है कब ठंड!
बालक युवा किशोर सब,करें शीत के खंड।।
ठंड सताती ही नहीं,जब हो साजन पास।
भर तन-मन में उष्णता, पूर्ण करे हर आस।।
ठिठुर-ठिठुर चकवी कहे,कैसा प्रभु का शाप
सभी तिया निशि पीव सँग, एकांतिक मम जाप
ठिठुर रहा जो राह में,बिना वसन जो दीन।
ढाँढ़स उसको दे रही,तिरती जल की मीन।।
💦 एक में सब 💦
मार्गशीर्ष में ठंड से,
ठिठुर रहा तन मीत।
थरथर ज्यों पल्लव कँपे,
कंबल करे अभीत।।
🪴 शुभमस्तु !
२२.१२.२०२१◆८.१५ आरोहणं मार्तण्डस्य।
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