■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■
✍️ शब्दकार ©
🐋 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■
जाल नहीं मछली को प्यारा।
लगती उसको प्रिय जलधारा।
जल के बाहर बहुत तड़पती।
मर भी जाती रहती सड़ती।।
जाल प्राणलेवा है कारा।
जाल नहीं मछली को प्यारा।
पानी की रानी कहलाती।
तैर दूर गहरे में जाती।।
कभी फुदकती निकट किनारा
जाल नहीं मछली को प्यारा।
कोई जल में चारा डाले।
मछुआ उसके प्राण निकाले।
सबका होता भाव निनारा।
जाल नहीं मछली को प्यारा।
बड़ी - बड़ी छोटी को खातीं।
उदरपूर्ति को भोग बनातीं।
कछुआ लगता बड़ा दुलारा।
जाल नहीं मछली को प्यारा।
घोंघा ,सीप साथ में रहते।
पड़े तली में रहते बहते।।
'शुभम'सिंधु भू नभ से न्यारा।
जाल नहीं मछली को प्यारा।।
🪴 शुभमस्तु !
१८.१२.२०२१◆११.३० आरोहणं मार्तण्डस्य।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें