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✍️ शब्दकार ©
🌸 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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खुशबू छिपे न इत्र की,महक उठा परिवेश।
नेताजी के वरद जो,फिर क्यों होता क्लेश।।
वर्जित है अति ही सदा, मोरी ढूँढ़े नीर,
तोड़ कुलाबे बह चला, डूबे नख से केश।
एक- एक घर में भरा,सोना रजत अपार,
अहि-रक्षित धन संपदा,बचा न सके धनेश।
रोटी, सब्जी , दाल से,भरता सबका पेट,
जब तन अपना छोड़ते,संग न जाता लेश।
कभी-कभी अति सादगी, बनती विष आहार
परदे में क्या हो रहा,जाना नहीं दिनेश।
अहंकार की नाव में, बैठे हुए सवार,
पहचानेगा कौन नर, सँग में रहें फ़णेश।
कर- चोरी के चोर का ,हाल हुआ बेहाल,
'शुभम'सियासत धर रही,नित्य नए बहु वेश।
🪴 शुभमस्तु !
२९.१२.२०२१◆२.००
पतनम मार्तण्डस्य।
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