शुक्रवार, 10 दिसंबर 2021

बसी हुई तन-मन में 🌹 [ गीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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बसी    हुई   तन  - मन    में  मेरे,

तव    सुगंध       मनभाई      है।

स्मृति     एक - एक     ताजा है,

बनी      नित्य      सुखदाई    है।।


उस  अतीत  के दिन   भी  क्या  थे,

नहीं    लौटकर      फिर   आएँ।

बीता   समय   नहीं  आता फिर,

मन     को      कैसे    समझाएँ।।

मेरी     रग - रग    में   हे सजनी,

तेरी       याद         समाई    है।

बसी    हुई    तन -  मन   में मेरे,

तव       सुगंध       मनभाई    है।।


तारों   भरी    रात   जागृत   थी,

धवल    चाँदनी     खिलती  थी।

निशा चाँद से जी  भर -भर कर,

चुप -  चुप    रहती    मिलती थी।।

अलिंगन - आबद्ध   क्षणों  की,

स्मृति    उर    उठ     आई    है।

बसी   हुई   तन - मन    में   मेरे,

तव       सुगंध      मनभाई     है।।


कोई    हमको    देख     न  पाए,

इस   प्रयास       में    रहते    थे।

मिलने   पर भी   शब्दशून्य -  से,

नेह -   सरित      में     बहते थे।।

आज  समय    ने  मिल   पाने में,

कर   दी      क्यों      निठुराई  है।

बसी  हुई     तन -  मन     में  मेरे,

तव         सुगंध       मनभाई  है।।


जीवन    की   घड़ियाँ  निश्चित हैं,

साँसें       भी     चुक     जाएँगी ।

अमर  कहानी  नेह  -  पटल पर,

प्रणय -  कथा      लिख   पाएँगीं।

व्यापक     है     ब्रह्मांड   हमारा,

नेह    -   युगल    बस   राई    है।

बसी   हुई       तन -  मन   में मेरे,

तव       सुगंध      मनभाई     है।।


नभ   के   पिंड  खींचते     हैं सब,

अपने        जैसा      मिल    जाए।

जीव ,  जीव    को  खोज  रहा  है,

फिर  से   'शुभम'        उसे  पाए।।

तेरे  -  मेरे     सुखद      मिलन की,

अब     तो       हुई      विदाई   है।

बसी    हुई     तन -   मन  में  मेरे,

तव       सुगंध        मनभाई     है।।


🪴 शुभमस्तु !


१०.१२.२०२१◆१०.४५ आरोहणं मार्तण्डस्य।

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