■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■
✍️ शब्दकार ©
🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■
बसी हुई तन - मन में मेरे,
तव सुगंध मनभाई है।
स्मृति एक - एक ताजा है,
बनी नित्य सुखदाई है।।
उस अतीत के दिन भी क्या थे,
नहीं लौटकर फिर आएँ।
बीता समय नहीं आता फिर,
मन को कैसे समझाएँ।।
मेरी रग - रग में हे सजनी,
तेरी याद समाई है।
बसी हुई तन - मन में मेरे,
तव सुगंध मनभाई है।।
तारों भरी रात जागृत थी,
धवल चाँदनी खिलती थी।
निशा चाँद से जी भर -भर कर,
चुप - चुप रहती मिलती थी।।
अलिंगन - आबद्ध क्षणों की,
स्मृति उर उठ आई है।
बसी हुई तन - मन में मेरे,
तव सुगंध मनभाई है।।
कोई हमको देख न पाए,
इस प्रयास में रहते थे।
मिलने पर भी शब्दशून्य - से,
नेह - सरित में बहते थे।।
आज समय ने मिल पाने में,
कर दी क्यों निठुराई है।
बसी हुई तन - मन में मेरे,
तव सुगंध मनभाई है।।
जीवन की घड़ियाँ निश्चित हैं,
साँसें भी चुक जाएँगी ।
अमर कहानी नेह - पटल पर,
प्रणय - कथा लिख पाएँगीं।
व्यापक है ब्रह्मांड हमारा,
नेह - युगल बस राई है।
बसी हुई तन - मन में मेरे,
तव सुगंध मनभाई है।।
नभ के पिंड खींचते हैं सब,
अपने जैसा मिल जाए।
जीव , जीव को खोज रहा है,
फिर से 'शुभम' उसे पाए।।
तेरे - मेरे सुखद मिलन की,
अब तो हुई विदाई है।
बसी हुई तन - मन में मेरे,
तव सुगंध मनभाई है।।
🪴 शुभमस्तु !
१०.१२.२०२१◆१०.४५ आरोहणं मार्तण्डस्य।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें